अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 10/ मन्त्र 6
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - मन्त्रोक्ताः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - शान्ति सूक्त
शं न॒ इन्द्रो॒ वसु॑भिर्दे॒वो अ॑स्तु॒ शमा॑दि॒त्येभि॒र्वरु॑णः सु॒शंसः॑। शं नो॑ रु॒द्रो रु॒द्रेभि॒र्जला॑षः॒ शं न॒स्त्वष्टा॒ ग्नाभि॑रि॒ह शृ॑णोतु ॥
स्वर सहित पद पाठशम्। नः॒। इन्द्रः॑। वसु॑ऽभिः। दे॒वः। अ॒स्तु॒। शम्। आ॒दि॒त्येभिः॑। वरु॑णः। सु॒ऽशंसः॑। शम्। नः॒। रु॒द्रः। रु॒द्रेभिः॑। जला॑षः। शम्। नः॒। त्वष्टा॑। ग्नाभिः॑। इ॒ह। शृ॒णो॒तु॒ ॥१०.६॥
स्वर रहित मन्त्र
शं न इन्द्रो वसुभिर्देवो अस्तु शमादित्येभिर्वरुणः सुशंसः। शं नो रुद्रो रुद्रेभिर्जलाषः शं नस्त्वष्टा ग्नाभिरिह शृणोतु ॥
स्वर रहित पद पाठशम्। नः। इन्द्रः। वसुऽभिः। देवः। अस्तु। शम्। आदित्येभिः। वरुणः। सुऽशंसः। शम्। नः। रुद्रः। रुद्रेभिः। जलाषः। शम्। नः। त्वष्टा। ग्नाभिः। इह। शृणोतु ॥१०.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 10; मन्त्र » 6
भाषार्थ -
(देवः) दिव्यगुणों वाला (इन्द्रः) इन्द्र पदवी का आचार्य (वसुभिः) २४ वर्षों तक किये ब्रह्मचर्य वाले वसु ब्रह्मचारियों द्वारा (नः) हमें (शम्) शान्तिदायक और सुखदायक (अस्तु) हो। (जलाषः) जलवत् शान्तिदायक (रुद्रः) रुद्रपदवी का आचार्य (रुद्रेभिः) ३६ वर्षों तक किये ब्रह्मचर्य वाले रुद्र ब्रह्मचारियों द्वारा (नः) हमें (शम्) शान्तिदायक और सुखदायक हो। (सुशंसः) पदार्थों के गुणधर्मों का यथार्थ कथन करनेवाला सुप्रशंसनीय (वरुणः) वरुणपदवी का आचार्य (आदित्येभिः) ४८ वर्षों तक किये ब्रह्मचर्य वाले आदित्य ब्रह्मचारियों द्वारा हमें (शम्) शान्तिदायक तथा सुखदायक हो। (त्वष्टा) संसार के रूपों और आकृतियों का रचयिता कारीगर परमेश्वर (ग्नाभिः) वेदवाणियों द्वारा की गई हमारी प्रार्थनाओं को (इह) हमारे इन्हीं जीवनों में (शृणोतु) सुन ले, और (नः) हमें (शम्) शान्तिदायक हो।
टिप्पणी -
[अथर्ववेद के ब्रह्मचर्यसूक्त (११.५) में ब्रह्मचारी और आचार्य का वर्णन हुआ है। ब्रह्मचर्यसूक्त के मन्त्र ११.५.१६ द्वारा प्रतीत होता है कि “इन्द्र” चतुर्थाश्रमी आचार्य है। मन्त्र निम्नलिखित है। यथा— आचार्यो ब्रह्मचारी ब्रह्मचारी प्रजापतिः। प्रजापतिर्वि राजति विराडिन्द्रोऽभवद् वशी॥ अभिप्राय यह कि— “आचार्य को पहिले ब्रह्मचारी होना चाहिए। ब्रह्मचारी के पश्चात् वह प्रजापति अर्थात् गृहस्थी होना चाहिए। प्रजापति के पश्चात् उसे विराट् अर्थात् सब प्रकार की गार्हस्थ्य दीप्तियों और शोभाओं से विगत होकर वनस्थ होना चाहिए। विराट् अर्थात् वनस्थ के पश्चात् वशी अर्थात् इन्द्रियों और मन पर पूर्ण विजयी होकर वह इन्द्र पदवी को पाए”। ऐसी इन्द्रपदवी का व्यक्ति वसु ब्रह्मचारियों का आचार्य बने। बाल्यकाल से लेकर वसुकाल तक ब्रह्मचारी ने चरित्रनिर्माण करना है। अतः इस काल के ब्रह्मचारीयों के आचार्यों को “वशी इन्द्र” कहा है। रुद्र ब्रह्मचारी ३६ वर्ष के होते हैं। इनके आचार्य को मन्त्र में रुद्र कहा है। मन्त्र में रुद्र का विशेषण है—“जलाषः”। जलाषम्=उदकम् (निघं० १.१२)। रुद्र संहारकारी है। मृत्यु भी संहारकारी है। इसलिए अथर्व० ११.५.१४ में आचार्य को “मृत्यु” भी कहा है। जलाष अर्थात् उदक शान्तिदायक है। रुद्र ब्रह्मचारियों के आचार्य को रुद्र, तथा जलाष दो रूपोंवाला होना चाहिए। वह समय पर रुद्र भी हो, और समय पर जलाष भी हो। ४८ वर्षों के आदित्य ब्रह्मचारियों के आचार्य को “वरुण” कहा। अथर्व० ११.५.१४ में आचार्य को “वरुण” भी कहा है। वरुण का अर्थ है वरणीय। उच्च कोटि के ब्रह्मचारी अपने-अपने विषय की दृष्टि से अपने-अपने आचार्यों का स्वयं वरण करें। ये आचार्य “सुशंसः” अर्थात् अपने-अपने विषय के उत्तम-प्रवक्ता होने चाहिएँ। “त्वष्टा” पद द्वारा परमेश्वर का वर्णन हुआ है। त्वष्टा का अर्थ है—कारीगर, जो कि नानाविध रूपों का निर्माण करता है। त्वष्टा= त्विषेर्वा स्याद् दीप्तिकर्मणः, त्वक्षते र्वा स्यात् करोतिकर्मणः (निरु० ८.२.१४)। त्वष्टा के सम्बन्ध में निम्नलिखित मन्त्र विशेष प्रकाश डालता है। यथा—“य इमे द्यावापृथिवी जनित्री रूपैरपिंशत् भुवनानि विश्वा। तमद्य होतरिषितो यजीयान् देवं त्वष्टारमिह यक्षि विद्वान्” (ऋ० १०.११०.९)।]