अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 27/ मन्त्र 13
सूक्त - भृग्वङ्गिराः
देवता - त्रिवृत्
छन्दः - एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सुरक्षा सूक्त
ये दे॑वा पृथि॒व्यामेका॑दश॒ स्थ ते॑ देवासो ह॒विरि॒दं जु॑षध्वम् ॥
स्वर सहित पद पाठये। दे॒वाः॒। पृ॒थि॒व्याम्। एका॑दश। स्थ। ते। दे॒वा॒सः॒। ह॒विः। इ॒दम्। जु॒ष॒ध्व॒म् ॥२७.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
ये देवा पृथिव्यामेकादश स्थ ते देवासो हविरिदं जुषध्वम् ॥
स्वर रहित पद पाठये। देवाः। पृथिव्याम्। एकादश। स्थ। ते। देवासः। हविः। इदम्। जुषध्वम् ॥२७.१३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 27; मन्त्र » 13
भाषार्थ -
(देवाः) हे विद्वानों! (ये) जो (पृथिव्याम्) पृथिवी में (एकादश) उक्त एकादश गण [दश प्राण और ग्यारहवां जीव] (स्थ) हैं, (ते) वे जैसे हैं वैसे उन को जानके (देवासः) हे विद्वानों! तुम (इदम्) इस (हविः) हवि को (जुषध्वम्) प्रीतिपूर्वक सेवन करो।
टिप्पणी -
[ऋग्वेद मं० १, सू० १३९, मन्त्र ११ के महर्षि दयानन्द- भाष्य के भावानुसार अर्थ दिया है। यजुर्वेद ७।१९ के महर्षि-भाष्यानुसार (पृथिव्याम् अधि) भूमि के ऊपर (एकादश) ग्यारह अर्थात् पृथिवी, जल, अग्नि, पवन, आकाश, आदित्य, चन्द्रमा, नक्षत्र, अहंकार, महत्तत्त्व, और प्रकृति (स्थ) हैं........।]