अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 27/ मन्त्र 5
सूक्त - भृग्वङ्गिराः
देवता - त्रिवृत्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सुरक्षा सूक्त
घृ॒तेन॑ त्वा॒ समु॑क्षा॒म्यग्न॒ आज्ये॑न व॒र्धय॑न्। अ॒ग्नेश्च॒न्द्रस्य॒ सूर्य॑स्य॒ मा प्रा॒णं मा॒यिनो॑ दभन् ॥
स्वर सहित पद पाठघृ॒तेन॑। त्वा॒। सम्। उ॒क्षा॒मि॒। अग्ने॑। आज्ये॑न। व॒र्धय॑न्। अ॒ग्नेः। च॒न्द्रस्य॑। सूर्य॑स्य। मा। प्रा॒णम्। मा॒यिनः॑। द॒भ॒न् ॥२७.५॥
स्वर रहित मन्त्र
घृतेन त्वा समुक्षाम्यग्न आज्येन वर्धयन्। अग्नेश्चन्द्रस्य सूर्यस्य मा प्राणं मायिनो दभन् ॥
स्वर रहित पद पाठघृतेन। त्वा। सम्। उक्षामि। अग्ने। आज्येन। वर्धयन्। अग्नेः। चन्द्रस्य। सूर्यस्य। मा। प्राणम्। मायिनः। दभन् ॥२७.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 27; मन्त्र » 5
भाषार्थ -
(अग्ने) हे अग्नि के सदृश तेजस्वी पुरुष! यज्ञाग्नि को (आज्येन१)] घृत द्वारा (वर्धयन्) बढ़ाता हुआ मैं, (घृतेन) घृत द्वारा (त्वा) तुझे (समुक्षामि) सम्यक् प्रकार से सींचता हूं। ताकि (अग्नेः) यज्ञाग्नि सम्बन्धी (चन्द्रस्य) चान्द सम्बन्धी, (सूर्यस्य) और सूर्य सम्बन्धी (प्राणम्) प्राप्त प्राणशक्ति को, (मायिनः) छल-कपट से अर्थात् विना जाने शरीर में प्रविष्ट हो जाने वाले रोग कीटाणु (मा दभन्) दबा न दें।
टिप्पणी -
[घृतेन=“आयुर्वै घृतम्”, अर्थात् घृत द्वारा आयु या प्राणशक्ति बढ़ती है। अतः शरीर को घृत द्वारा सिंचित करना चाहिये। यज्ञाग्नि में आज्याहुतियों द्वारा वायुशुद्धि, रोगनाश, तथा जल-ओषधियाँ प्राण सम्पन्न हो जाती हैं। चान्द भी ओषधियों में रस सेचन द्वारा प्राणप्रद है। सूर्य भी ताप, प्रकाश, तथा वर्षा द्वारा प्राण शक्ति प्रदान करता है। घृत, यज्ञाग्नि, चान्द और सूर्य द्वारा प्राण शक्ति ग्रहण करने से रोग कीटाणु, प्राप्त प्राण शक्ति को दबा नहीं सकते।] [१. सर्पिर्विलीनमाज्यं स्याद् घनीभूतं घृतं भवेत् (आप्टे) तथा घृतम्= Butter (आप्टे)।]