अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 27/ मन्त्र 9
सूक्त - भृग्वङ्गिराः
देवता - त्रिवृत्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सुरक्षा सूक्त
दे॒वानां॒ निहि॑तं नि॒धिं यमिन्द्रो॒ऽन्ववि॑न्दत्प॒थिभि॑र्देव॒यानैः॑। आपो॒ हिर॑ण्यं जुगुपुस्त्रि॒वृद्भि॒स्तास्त्वा॑ रक्षन्तु त्रि॒वृता॑ त्रि॒वृद्भिः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वाना॑म्। निऽहि॑तम्। नि॒ऽधिम्। यम्। इन्द्रः॑। अ॒नु॒ऽअवि॑न्दत्। प॒थिऽभिः॑। दे॒व॒ऽयानैः॑। आपः॑। हिर॑ण्यम्। जु॒गु॒षुः॒। त्रि॒वृत्ऽभिः॑। ताः। त्वा॒। र॒क्ष॒न्तु॒। त्रि॒ऽवृता॑। त्रि॒वृत्ऽभिः॑ ॥२७.९॥
स्वर रहित मन्त्र
देवानां निहितं निधिं यमिन्द्रोऽन्वविन्दत्पथिभिर्देवयानैः। आपो हिरण्यं जुगुपुस्त्रिवृद्भिस्तास्त्वा रक्षन्तु त्रिवृता त्रिवृद्भिः ॥
स्वर रहित पद पाठदेवानाम्। निऽहितम्। निऽधिम्। यम्। इन्द्रः। अनुऽअविन्दत्। पथिऽभिः। देवऽयानैः। आपः। हिरण्यम्। जुगुषुः। त्रिवृत्ऽभिः। ताः। त्वा। रक्षन्तु। त्रिऽवृता। त्रिवृत्ऽभिः ॥२७.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 27; मन्त्र » 9
भाषार्थ -
(देवानाम्) देवयानमार्गी विद्वानों की (यम्) जिस, (निहितम्) शरीरस्थ (हिरण्यम्) हितकर-और-रमणीय वीर्यरूपी (निधिम्) निधि को (आपः) शरीरस्थ अप्-तत्त्व ने अपने में (जुगुपुः) गुप्तरूप मैं रखा है, और जिसे कि (इन्द्रः) अध्यात्मशक्ति सम्पन्न व्यक्ति ने, (देवयानैः पथिभिः) देवयान मार्गों द्वारा (अन्वविन्दत्) प्राप्त किया है उसे, (आपः) शरीरस्थ अप्-तत्त्व१, (त्रिवृता) त्रिवृत्-स्तोम सहित (त्रिवृद्भिः) अन्य त्रिवृतों अर्थात् मन्त्र ३-४ में उक्त त्रिकों द्वारा (रक्षन्तु) सुरक्षित करें। (ताः) वे अपतत्त्व (त्रिवृता त्रिवृद्भिः) त्रिवृत-स्तोम सहित अन्य त्रिवृतों अर्थात् मन्त्र ३-४ में उक्त त्रिकों द्वारा, हे मनुष्य! (त्वा) तुझे (रक्षन्तु) सुरक्षित करें।
टिप्पणी -
[हिरण्य= वीर्य (अथर्व० १९।२६।१-४)। आपः= शरीरस्थ रक्त। यथा—“को अस्मिन्नापो व्यदधात् विषूवृतः पुरूवृतः सिन्धु सृत्याय जाताः। तीव्रा अरुणा लोहिनीस्ताम्रधूम्रा ऊर्ध्वा अवाचीः पुरुषे तिरश्चीः॥” (अथर्व० १०।२।११)। अर्थात् किसने इस पुरुष में अप्-तत्त्व विधि पूर्वक स्थापित किये हैं, जो कि शरीर के भिन्न-भिन्न अङ्गों में वर्तमान हैं, और पर्याप्तमात्रा में विद्यमान हैं, जो कि सिन्धु अर्थात् हृदयसमुद्र की ओर बहने के लिए पैदा हुए हैं, स्वाद में तीखे; लाल, लोह घटित, तथा ताम्बे के धूएं सदृश हैं, और ऊपर की ओर, नीचे की ओर, तथा तिरछे प्रवाहित हो रहे हैं। अरुणाः= धमनियों का लाल रक्त। ताम्रधूम्राः= शिराओं veins का नीला रक्त। इस अपतत्त्व में वीर्य गुप्तरूप में सुरक्षित रहता है। देवयानैः पथिभिः= जो अरण्य में श्रद्धा और तप का आचरण करते हैं उनका मार्ग “देवयानः पन्थाः” कहलाता है (छान्दो० उप० अ० ५, खं० १०)। तथा “सत्येन पन्था विततो देवयानः” (मुण्डक उप० ३.१.६)। अर्थात् सत्याचरण द्वारा देवयान पथ वितत है। त्रिवृता त्रिवृद्भिः= अभिप्राय यह कि शरीरस्थ अप्-तत्त्व-भक्तिपूर्ण स्तोमों के सामगानों द्वारा तथा मन्त्र ३, ४ में उक्त त्रिवृतों के यथार्थ सेवन द्वारा, वीर्य को सुरक्षित रखते, और इससे पुरुष की रक्षा करते हैं, अन्यथा विनाश होता है।] [१. आपः= आप्नुवन्ति शरीरमिति (उणा० २।५९, महर्षि दयानन्द)]