अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 14/ मन्त्र 1
सूक्त - चातनः
देवता - शालाग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - दस्युनाशन सूक्त
निः॑सा॒लां धृ॒ष्णुं धि॒षण॑मेकवा॒द्यां जि॑घ॒त्स्व॑म्। सर्वा॒श्चण्ड॑स्य न॒प्त्यो॑ ना॒शया॑मः स॒दान्वाः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठनि॒:ऽसा॒लाम् । धृ॒ष्णुम्। धि॒षण॑म् । ए॒क॒ऽवा॒द्याम् । जि॒घ॒त्ऽस्व᳡म् । सर्वा॑: । चण्ड॑स्य । न॒प्त्य᳡: । ना॒शया॑म: । स॒दान्वा॑: ॥१४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
निःसालां धृष्णुं धिषणमेकवाद्यां जिघत्स्वम्। सर्वाश्चण्डस्य नप्त्यो नाशयामः सदान्वाः ॥
स्वर रहित पद पाठनि:ऽसालाम् । धृष्णुम्। धिषणम् । एकऽवाद्याम् । जिघत्ऽस्वम् । सर्वा: । चण्डस्य । नप्त्य: । नाशयाम: । सदान्वा: ॥१४.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 14; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(निःसालाम्) शाला से निकाल दी गई, (धृष्णुम्) धर्षक अर्थात् पराभूत करनेवाली, (धिषणम्) धर्षणशीला अर्थात् भयोत्पादिका, (एक वाद्याम्) एक ही वाद्य१ द्वारा गीत गानेवाली, (जिघत्स्वम्) खा जानेवाली (चण्डस्य) तथा प्रचण्ड रोग को (सर्वा नप्त्यः) इन सब अपत्यरूपा, (सदान्वाः) तथा सदा कष्टसूचक शब्दों का उच्चारण करानेवाली, स्त्रीजातिक रोग कीटाणुओं का (नाशयामः) हम नाश करते है।
टिप्पणी -
[मन्त्र १ में बहुविध रोग-कीटाणुओं का वर्णन हुआ है। ये कीटाणु स्त्री जाति के हैं। समग्र सूक्त में इन्हें स्त्रीलिङ्गी पदों द्वारा सूचित किया है।] [१. जैसेकि "दत्तावधानां मधुलेहगीतौ" (भट्टिकाव्य) में भ्रमर की गूंज को गीति कहकर उसके वाद्य की भी कल्पना की गई है, उसकी गीति सदा एक प्रकार की होती है, अतः उसका वाद्य भी एक ही कहा है। इसी प्रकार मच्छर की घूं-घूं को वाद्य कहा जा सकता है।]