अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 27/ मन्त्र 6
सूक्त - कपिञ्जलः
देवता - रुद्रः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुपराजय सूक्त
रुद्र॒ जला॑षभेषज॒ नील॑शिखण्ड॒ कर्म॑कृत्। प्राशं॒ प्रति॑प्राशो जह्यर॒सान्कृ॑ण्वोषधे ॥
स्वर सहित पद पाठरुद्र॑ । जला॑षऽभेषज । नील॑ऽशिखण्ड । कर्म॑ऽकृत् । प्राश॑म् । प्रति॑ऽप्राश: । ज॒हि॒ । अ॒र॒सान् । कृ॒णु॒ । ओ॒ष॒धे॒ ॥२७.६॥
स्वर रहित मन्त्र
रुद्र जलाषभेषज नीलशिखण्ड कर्मकृत्। प्राशं प्रतिप्राशो जह्यरसान्कृण्वोषधे ॥
स्वर रहित पद पाठरुद्र । जलाषऽभेषज । नीलऽशिखण्ड । कर्मऽकृत् । प्राशम् । प्रतिऽप्राश: । जहि । अरसान् । कृणु । ओषधे ॥२७.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 27; मन्त्र » 6
भाषार्थ -
(रुद्र) हे रौद्र कर्म करनेवाले ! [मध्यस्थानी इन्द्र = विद्युत् ], (जलाषभेषज) हे उदक द्वारा चिकित्सा करनेवाले, (नीलशिखण्ड) हे नीली शिखा तथा नीले पुंछ सहित मोरोंवाले ! (कर्मकृत्) हे कृषिकर्म के करनेवाले मेघ !।
टिप्पणी -
[मन्त्र में मेघ का वर्णन प्रतीत होता है। रुद्र है मध्यस्यानी इन्द्र अर्थात् विद्युत्। इन्द्र जब मेघ में चमकता है, तब उसके वज्रपात द्वारा वृक्ष आदि जलते हैं, यह उसका रौद्रकर्म है। मेघच्युत उदक शुद्ध होता है, उस शुद्ध उदक द्वारा जल चिकित्सा करनी चाहिए। भौम उदक शुद्ध नहीं होता, उसमें भौमतत्त्व मिश्रित रहते हैं। वर्षा-काल में मोर-मोरनियाँ प्रसन्न होती हैं। मेघ की वर्षा, कृषिकर्म में सहायक होती है और प्राश अर्थात् अशनयोग्य अन्न प्राप्त होता है। जलाषम् उदकनाम (निघं० १।१२)। यद्यपि इन्द्र पद द्वारा मुख्यतः सशरीर जीवात्मा का वर्णन हुआ है, तथापि सूक्त में इन्द्र पद द्व्यर्थ क होने से प्रसङ्गवश अन्तरिक्षस्थानी इन्द्र अर्थात् विद्युत् का तथा तत्सम्बन्धी मेघ का भी वर्णन हुआ है। यथा "वायुर्वा इन्द्रो वा अन्तरिक्षस्थानः" (निरुक्त० ७।२।५)। अन्तरिक्षस्थानी इन्द्र को रुद्र कहा है।]