अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 30/ मन्त्र 3
सूक्त - प्रजापतिः
देवता - ओषधिः
छन्दः - भुरिगनुष्टुप्
सूक्तम् - कामिनीमनोऽभिमुखीकरण सूक्त
यत्सु॑प॒र्णा वि॑व॒क्षवो॑ अनमी॒वा वि॑व॒क्षवः॑। तत्र॑ मे गछता॒द्धवं॑ श॒ल्य इ॑व॒ कुल्म॑लं॒ यथा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । सु॒ऽप॒र्णा: । वि॒व॒क्षव॑: । अ॒न॒मी॒वा: । वि॒व॒क्षव॑: । तत्र॑ । मे॒ । ग॒च्छ॒ता॒त् । हव॑म् । श॒ल्य:ऽइ॑व । कुल्म॑लम् । यथा॑ ॥३०.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्सुपर्णा विवक्षवो अनमीवा विवक्षवः। तत्र मे गछताद्धवं शल्य इव कुल्मलं यथा ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । सुऽपर्णा: । विवक्षव: । अनमीवा: । विवक्षव: । तत्र । मे । गच्छतात् । हवम् । शल्य:ऽइव । कुल्मलम् । यथा ॥३०.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 30; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(सुपर्णाः) उत्तम-पालन में समर्थ (विवक्षवः१) विवाह की इच्छावाले (अनमीवाः) रोगरहित अर्थात् स्वस्थ (विवक्षवः) विवाह की इच्छावाले, (यत्) जिस गृहस्थ में जाते हैं, (तत्र) उस गृहस्थ में (मे) मेरा (हवम्) आह्वान (गच्छतात्) पहुँचे, (इव) यथा (शल्यः) वाण का लोहाग्रभाग (कुल्मलम्) वाणदण्ड में पहुँचता है, [और वहाँ सुरक्षित तथा धारित हो जाता है।]
टिप्पणी -
[हवम् =अर्थात् उस गृहस्थ के लिए मुझे आहूत किया जाए, गृहस्थ सम्बन्ध के लिए मुझे आमन्त्रित किया जाए। गृहस्थकर्म में मैं इस प्रकार रसुक्षित तथा धारित हूँगा, जैसेकि शल्य शल्यदण्ड में सुरक्षित और धारित हो जाता है। कुल्मलम् = कुड्मलम् =कुडि रक्षणे (चुरादिः)+ मल धारणे (भ्वादिः)। कुल्मलम् =कुड्मलम्, डलयोरभेदः।] [१. वि + वह् + सन् +उ+ प्रथमा बहुवचन । इसलिए ही विवक्षवः में 'उ' हुआ है । यथा "सनाशंसमिक्ष उ:" (अष्टा० ३।२।१६८)।]