अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 30/ मन्त्र 4
सूक्त - प्रजापतिः
देवता - ओषधिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - कामिनीमनोऽभिमुखीकरण सूक्त
यदन्त॑रं॒ तद्बाह्यं॒ यद्बाह्यं॒ तदन्त॑रम्। क॒न्या॑नां वि॒श्वरू॑पाणां॒ मनो॑ गृभायौषधे ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । अन्त॑रम् । तत् । बाह्य॑म् । यत् । बाह्य॑म् । तत् । अन्त॑रम् । क॒न्या᳡नाम् । वि॒श्वऽरू॑पाणाम् । मन॑: । गृ॒भा॒य॒ । ओ॒ष॒धे॒ ॥३०.४॥
स्वर रहित मन्त्र
यदन्तरं तद्बाह्यं यद्बाह्यं तदन्तरम्। कन्यानां विश्वरूपाणां मनो गृभायौषधे ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । अन्तरम् । तत् । बाह्यम् । यत् । बाह्यम् । तत् । अन्तरम् । कन्यानाम् । विश्वऽरूपाणाम् । मन: । गृभाय । ओषधे ॥३०.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 30; मन्त्र » 4
भाषार्थ -
कन्याओं के (अन्तरम्) मनों में (यद्) जो होता है ( तद् ) वह (बाह्यम्) बाहर के कमों में प्रकट होता है और जो (बाह्यम्) बाहर के कर्मों में होता है ( तद्) वह ( अन्तरम्) उनके मनों में होता है, अर्थात् कन्याएँ छल-कपट से रहित होती हैं । (ओषधे) हे ओषधि ! (विश्वरूपाणाम्) नानारूपोंबाली या विश्व में रूपवती कन्याओं के ( मन:) मन को (गृभाय) वश में कर।
टिप्पणी -
[गृभाय=गृहाण। ग्रह+शायच् । ओषधि-सेवन द्वारा मन को परवश किया जा सकता है। सात्त्विक, राजस, और तमोगुणी अन्नों के सेवन से मन की वृत्तियाँ सत्त्वगुणी, रजोगुणी तथा तमोगुणी हो जाती हैं। भिन्न-भिन्न अन्न, भिन्न-भिन्न ओषधिरुप ही हैं। इसीलिए कहा है कि "रजस्तमो मोपगा मा प्रमेष्ठाः" (अथर्व० ८।२।१)।]