अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 124/ मन्त्र 2
कस्त्वा॑ स॒त्यो मदा॑नां॒ मंहि॑ष्ठो मत्स॒दन्ध॑सः। दृ॒ढा चि॑दा॒रुजे॒ वसु॑ ॥
स्वर सहित पद पाठक: । त्वा॒ । स॒त्य: । मदा॑नाम् । मंहि॑ष्ठ: । म॒त्स॒त् । अन्ध॑स: ॥ दृ॒ह्ला । चि॒त् । आ॒ऽरुजे॑ । वसु॑ ॥१२४.२॥
स्वर रहित मन्त्र
कस्त्वा सत्यो मदानां मंहिष्ठो मत्सदन्धसः। दृढा चिदारुजे वसु ॥
स्वर रहित पद पाठक: । त्वा । सत्य: । मदानाम् । मंहिष्ठ: । मत्सत् । अन्धस: ॥ दृह्ला । चित् । आऽरुजे । वसु ॥१२४.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 124; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(कः) कौन है जो (त्वा) तुझे (अन्धसः) आध्यात्मिक अन्न अर्थात् आनन्दरस से (मत्सत्) मस्ताना बना देता है? और कौन है जो कि तुझे (दृळ्हा चित्) निश्चित ही सुदृढ़ (वसु) आध्यात्मिक-सम्पत्तियाँ प्रदान करता है, ताकि तू (आरुजे) पाप-गढ़ों को तोड़-फोड़ सके?। उत्तर—वह है (मदानाम्) आध्यात्मिक-मस्तियों का (मंहिष्ठः) सर्वश्रेष्ठ प्रदाता (सत्यः) सत्यस्वरूप परमेश्वर।