अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 16/ मन्त्र 1
उ॑द॒प्रुतो॒ न वयो॒ रक्ष॑माणा॒ वाव॑दतो अ॒भ्रिय॑स्येव॒ घोषाः॑। गि॑रि॒भ्रजो॒ नोर्मयो॒ मद॑न्तो॒ बृह॒स्पति॑म॒भ्य॒र्का अ॑नावन् ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒द॒ऽप्रुत॑: । न । वय॑: । रक्ष॑माणा: । वाव॑दत: । अ॒भ्रिय॑स्यऽइव । घोषा॑: ॥ गि॒रि॒ऽभ्रज॑: । न । ऊ॒र्मय॑: । मद॑न्त: । बृह॒स्पति॑म्। अ॒भि । अ॒र्का: । अ॒ना॒व॒न् ॥१६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
उदप्रुतो न वयो रक्षमाणा वावदतो अभ्रियस्येव घोषाः। गिरिभ्रजो नोर्मयो मदन्तो बृहस्पतिमभ्यर्का अनावन् ॥
स्वर रहित पद पाठउदऽप्रुत: । न । वय: । रक्षमाणा: । वावदत: । अभ्रियस्यऽइव । घोषा: ॥ गिरिऽभ्रज: । न । ऊर्मय: । मदन्त: । बृहस्पतिम्। अभि । अर्का: । अनावन् ॥१६.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 16; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(रक्षमाणाः) अपनी रक्षा में तत्पर, (उदप्रुतः) जलों में प्लुतियाँ लगानेवाले (वावदतः= वावदन्तः) कलरव करते हुए (वयः) पक्षी (न) जैसे (बृहस्पतिम्) मानो महाब्रह्माण्ड के अधिपति की (अनावन्) स्तुतियाँ करते हैं, तथा (वावदतः) कड़कते हुए (अभ्रियस्य) मेघस्थ-विद्युद्वज्र के (घोषाः) घोष (इव) जैसे मानो बृहस्पति की स्तुतियाँ करते हैं, और (गिरिभ्रजः) पर्वतों से गिरती हुई (ऊर्मयः) नदियों की लहरें (न) जैसे मानो बृहस्पति की स्तुतियाँ करती हैं, वैसे हमारे (मदन्तः) मादक (अर्काः) स्तुतिमन्त्र, महाब्रह्माण्ड के स्वामी की (अभि) साक्षात् (अनावन्) स्तुतियाँ करते हैं।
टिप्पणी -
[अभिप्राय यह है कि प्राकृतिक संसार भी मानो अपने प्रभु की स्तुतियाँ करता है। तब मनुष्यों को भी चाहिए कि अपने प्रभु की स्तुतियाँ करें।]