अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 16/ मन्त्र 6
य॒दा व॒लस्य॒ पीय॑तो॒ जसुं॒ भेद्बृह॒स्पति॑रग्नि॒तपो॑भिर॒र्कैः। द॒द्भिर्न जि॒ह्वा परि॑विष्ट॒माद॑दा॒विर्नि॒धीँर॑कृणोदु॒स्रिया॑णाम् ॥
स्वर सहित पद पाठय॒दा । व॒लस्य॑ । पीय॑त: । जसु॑म् । भेत् । बृह॒स्पति॑: । अ॒ग्नि॒तप॑:ऽभि: । अ॒र्कै: । द॒त्ऽभि: । न । जि॒ह्वा । परि॑ऽविष्टम् । आद॑त् । आ॒वि: । नि॒ऽधीन् । अ॒कृ॒णो॒त् । उ॒स्रिया॑णाम् ॥१६.६॥
स्वर रहित मन्त्र
यदा वलस्य पीयतो जसुं भेद्बृहस्पतिरग्नितपोभिरर्कैः। दद्भिर्न जिह्वा परिविष्टमाददाविर्निधीँरकृणोदुस्रियाणाम् ॥
स्वर रहित पद पाठयदा । वलस्य । पीयत: । जसुम् । भेत् । बृहस्पति: । अग्नितप:ऽभि: । अर्कै: । दत्ऽभि: । न । जिह्वा । परिऽविष्टम् । आदत् । आवि: । निऽधीन् । अकृणोत् । उस्रियाणाम् ॥१६.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 16; मन्त्र » 6
भाषार्थ -
(यदा) जब (बृहस्पतिः) वायु (अग्नितपोभिः) अग्नि के समन परितप्त (अर्कैः) सूर्य-किरणों द्वारा (पीयतः) मानो जल को पी जानेवाले अर्थात् न बरसानेवाले, और (वलस्य) आकाश को घेरनेवाले मेघ की (जसुम्) हिंस्रवृत्ति को (भेद्) विनष्ट कर देता है, तब (दद्भिः) दान्तों द्वारा (परिविष्टम्) घिरी (जिह्वा न) जिह्वा के समान, मेघ द्वारा घिरे जल को वायु, (आदत्) प्राप्त कर लेती है, और (उस्रियाणाम्) नदियों के (निधीन्) निधिस्वरूप जल को (आविः अकृणोत्) प्रकट कर देती है।
टिप्पणी -
[पीयतः=पी पाने (दिवादि)। वलस्य=आवरण डालनेवाले मेघ की, वृ आवरणे। जसुम्=जस हिंसायाम्। उस्रियाणाम्=नदीनाम् (निघं০ २.११)। मन्त्र में बृहस्पति पद द्वारा सेनापति का भी वर्णन हुआ है, जो कि आग्नेय शस्त्रों द्वारा तथा सूर्य की तप्त किरणों द्वारा, राष्ट्र पर घेरा डाले शत्रु के घेरे को तोड़ देता है। और घिरे राष्ट्र को शत्रु से छुड़ा कर प्रजाजनों की सम्पत्तियों को सुरक्षित कर देता है। उस्रियाः=उस्रा अर्थात् किरणों के सदृश शुद्ध-पवित्र प्रजाजन।]