अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 16/ मन्त्र 11
अ॒भि श्या॒वं न कृश॑नेभि॒रश्वं॒ नक्ष॑त्रेभिः पि॒तरो॒ द्याम॑पिंशन्। रात्र्यां॒ तमो॒ अद॑धु॒र्ज्योति॒रह॒न्बृह॒स्पति॑र्भि॒नदद्रिं॑ वि॒दद्गाः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि । श्या॒वम् । न । कृश॑नेभि : । अश्व॑म् । नक्ष॑त्रेभि: । पि॒तर॑: । द्याम् । अ॒पिं॒श॒न् ॥ रात्र्या॑म् । तम॑: । अद॑धु: । ज्योति॑: । अह॑न् । बृह॒स्पति॑: । भि॒नत् । अद्रि॑म् । वि॒दत् । गा:॥१६.११॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि श्यावं न कृशनेभिरश्वं नक्षत्रेभिः पितरो द्यामपिंशन्। रात्र्यां तमो अदधुर्ज्योतिरहन्बृहस्पतिर्भिनदद्रिं विदद्गाः ॥
स्वर रहित पद पाठअभि । श्यावम् । न । कृशनेभि : । अश्वम् । नक्षत्रेभि: । पितर: । द्याम् । अपिंशन् ॥ रात्र्याम् । तम: । अदधु: । ज्योति: । अहन् । बृहस्पति: । भिनत् । अद्रिम् । विदत् । गा:॥१६.११॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 16; मन्त्र » 11
भाषार्थ -
(न) जैसे (श्यावम्) श्याम वर्णवाले (अश्वम्) अश्व को (पितरः) उसके पालक स्वामी, (कृशनेभिः) अग्नि-सदृश चमकीली मणियों के हारों द्वारा (अपिंशन्) सुशोभित करते हैं, वैसे (पितरः) पालक-ऋतुओं ने (कृशनेभिः नक्षत्रेभिः) कृशानु-समान चमकते नक्षत्रों द्वारा (द्याम्) द्युलोक को (अपिंशन्) सुशोभित कर दिया है। पालक-ऋतुओं ने (रात्र्याम्) रात्रि में (तमः अदधुः) अन्धकार को स्थापित किया हैं। और (अह्न) दिन में (ज्योतिः) ज्योति को स्थापित किया है, जबकि (बृहस्पतिः) वायु ने (अद्रिम्) मेघ को (भिनत्) छिन्न-भिन्न करके (गाः) जलों को (विदत्) प्राप्त किया।
टिप्पणी -
[कृशन=कृशानु (=अग्नि)। मन्त्र में पालक-ऋतुओं के अनुसार, जब मेघ को छिन्न-भिन्न कर दिया, और उसके समग्र जलों को प्राप्त कर लिया, तब आकाश स्वच्छ हो गया। और दिन में सूर्य चमकने लगा, और रात्री में श्याम आकाश में अग्निमय-नक्षत्र चमकने लगे। इस प्रकार मन्त्र १० और ११ में वर्षाऋतु की समाप्ति पर दृश्यों का वर्णन हुआ है। पितरः=ऋतवः (शत০ ब्रा০ २.६.१.३२) में सायण। तथा ‘पितृमते’ की व्याख्या में पितृ=ऋतु (दयानन्द, यजुः০ २.२९)।]