अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 16/ मन्त्र 7
बृह॒स्पति॒रम॑त॒ हि त्यदा॑सां॒ नाम॑ स्व॒रीणां॒ सद॑ने॒ गुहा॒ यत्। आ॒ण्डेव॑ भि॒त्त्वा श॑कु॒नस्य॒ गर्भ॒मुदु॒स्रियाः॒ पर्व॑तस्य॒ त्मना॑जत् ॥
स्वर सहित पद पाठबृह॒स्पति॑: । अम॑त । हि । त्यत् । आ॒सा॒म् । नाम॑ । स्व॒रीणा॑म् । सद॑ने । गुहा॑ । यत् ॥ आ॒ण्डाऽइ॑व । भि॒त्त्वा । श॒कु॒नस्य॑ । गर्भ॑म् । उत् । उ॒स्रिया॑: । पर्व॑तस्य । त्मना॑ । आ॒ज॒त् ॥१६.७॥
स्वर रहित मन्त्र
बृहस्पतिरमत हि त्यदासां नाम स्वरीणां सदने गुहा यत्। आण्डेव भित्त्वा शकुनस्य गर्भमुदुस्रियाः पर्वतस्य त्मनाजत् ॥
स्वर रहित पद पाठबृहस्पति: । अमत । हि । त्यत् । आसाम् । नाम । स्वरीणाम् । सदने । गुहा । यत् ॥ आण्डाऽइव । भित्त्वा । शकुनस्य । गर्भम् । उत् । उस्रिया: । पर्वतस्य । त्मना । आजत् ॥१६.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 16; मन्त्र » 7
भाषार्थ -
(बृहस्पतिः) वायु ने (सदने) अपने निवासस्थान अन्तरिक्ष में (यत् त्यत्) जो वह (आसां स्वरीणाम्) इन घोषपूर्वक बहती हुई नदियों का (नाम) जल (गुहा) छिपा पड़ा था, उसे (अमत) जान लिया। और उसने (त्मना) निजशक्ति द्वारा (पर्वतस्य) मेघ से (गर्भम्) गर्भ को (भित्त्वा) छिन्न-भिन्न करके (उस्रियसाः) नदियों को (आजत्) प्रकट कर दिया। (इव) जैसे कि (आण्डा) अण्डों को (भित्त्वा) तोड़कर (शकुनस्य) पक्षी के (गर्भम्) गर्भस्थ या गर्भभूत बच्चे को प्रकट किया जाता है।
टिप्पणी -
[‘बृहस्पति’ का अर्थ बृहती-सेना का अधिपति भी है। इस आधिभौतिक दृष्टि से सेनानी ने घोष करती हुईं, तथा तापक अस्त्रशस्त्रों से सम्पन्न इन शत्रु सेनाओं को, जो कि अपने सदन में छिप गई थीं, उनके ‘नाम’=अर्थात् नमन को आत्मसमर्पण को ‘अमत’=मान लिया, स्वीकार कर लिया। और पर्वतों के गर्भ में रहनेवाली शत्रु-प्रजा को स्वतन्त्र कर दिया है। ‘स्वरीणाम्’=स्वर करती हुई, आघोष या निनाद करती हुईं बहती नदियाँ। तथा स्वरीणाम्=‘स्वृ’ शब्दे उपतापे। शब्द करती हुईं तथा तपानेवाले अस्त्रशस्त्रों से सम्पन्न शत्रु की सेनाएँ। [पर्वतस्य=मेघस्य (निघं০ १.१०)।]