अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 21/ मन्त्र 8
त्वं कर॑ञ्जमु॒त प॒र्णयं॑ वधी॒स्तेजि॑ष्ठयातिथि॒ग्वस्य॑ वर्त॒नी। त्वं श॒ता वङ्गृ॑दस्याभिन॒त्पुरो॑ऽनानु॒दः परि॑षूता ऋ॒जिश्व॑ना ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । कर॑ञ्जम् । उ॒त । प॒र्णय॑म् । व॒धी॒: । तेजि॑ष्ठ्या । अ॒ति॒थि॒ऽग्वस्य॑ । व॒र्त॒नी ॥ त्वम् । श॒ता । वङ्गृ॑दस्य । अ॒भि॒न॒त् । पुर॑: । अ॒न॒नु॒ऽद: । परि॑ऽसूता: । ऋ॒जिश्व॑ना ॥२१.८॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं करञ्जमुत पर्णयं वधीस्तेजिष्ठयातिथिग्वस्य वर्तनी। त्वं शता वङ्गृदस्याभिनत्पुरोऽनानुदः परिषूता ऋजिश्वना ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । करञ्जम् । उत । पर्णयम् । वधी: । तेजिष्ठ्या । अतिथिऽग्वस्य । वर्तनी ॥ त्वम् । शता । वङ्गृदस्य । अभिनत् । पुर: । अननुऽद: । परिऽसूता: । ऋजिश्वना ॥२१.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 21; मन्त्र » 8
भाषार्थ -
(अतिथिग्वस्य) जिनके आगमन की कोई नियत तिथि नहीं, ऐसे योगीराजों की सेवा के लिए उनके प्रति गमन करनेवाले उपासक की (तेजिष्ठया) तीव्र संवेगवाली (वर्तनी) चित्तवृत्ति तथा उसके व्यवहार द्वारा, हे परमेश्वर! आपने उसके (करञ्जम्) वैषयिक-सुखों में मनोरञ्जन का, तथा (पर्णयम्) पत्ते के सदृश चञ्चल चेष्टाओं का (वधीः) वध कर दिया, विनाश कर दिया है। (ऋजिश्वना) ऋजु अर्थात् सत्यमार्ग पर चलनेवाले मनरूपी अश्ववाले उपासक द्वारा (परिषूताः) धकेल दी गई, (अनानुदः) और पुनः प्रेरणा प्रदान की शक्ति से रहित, (वङ्गृदस्य) कुटिल गतियों=वक्र गतियों के प्रदाता कामादि के (शत पुरः) सैकड़ों गढ़ों को (त्वम्) हे परमेश्वर! अपने (अभिनत्) तोड़-फोड़ दिया है।
टिप्पणी -
[करञ्जम्=क=वैषयिक सुखभोग+रञ्जन। पर्णयम्=पर्ण (=पत्ता) की गति, अस्थिर गति, चञ्चलता। अतिथिग्वस्य=अतिथ प्रति गच्छति इति अतिथिगुः, तस्य। (वङ्गृदस्य) वक्रगतिप्रदातु। ऋजिश्वना= ऋजु+अश्व (=मन)।]