अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 23/ मन्त्र 2
स॒त्तो होता॑ न ऋ॒त्विय॑स्तिस्ति॒रे ब॒र्हिरा॑नु॒षक्। अयु॑ज्रन्प्रा॒तरद्र॑यः ॥
स्वर सहित पद पाठस॒त्त: । होता॑ । न॒: । ऋ॒त्विय॑: । ति॒स्ति॒रे । ब॒र्हि: । आ॒नु॒षक् ॥ अयु॑ज्रन् । प्रा॒त: । अद्र॑य: ॥२३.२॥
स्वर रहित मन्त्र
सत्तो होता न ऋत्वियस्तिस्तिरे बर्हिरानुषक्। अयुज्रन्प्रातरद्रयः ॥
स्वर रहित पद पाठसत्त: । होता । न: । ऋत्विय: । तिस्तिरे । बर्हि: । आनुषक् ॥ अयुज्रन् । प्रात: । अद्रय: ॥२३.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 23; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
हे परमेश्वर! (अद्रयः) पापभक्षी अर्थात् निष्पाप हृदयोंवाले उपासकों ने (प्रातः) प्रातःकाल की उपासना में (अयुज्रन्) योगविधि द्वारा आपको अपने साथ योगयुक्त कर लिया है। और उन्होंने (बर्हिः) हृदयासनों को आपके लिए (आनुषक्) निरन्तर (तिस्तिरे) बिछा रखा है। (ऋत्वियः) मुझे भी यह उपासनाकाल प्राप्त हुआ है, और मैं (सत्तः) उपासना में स्थित होकर (होता न) होता-ऋत्विक् के सदृश आपका आह्वान कर रहा हूँ।