अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 23/ मन्त्र 2
स॒त्तो होता॑ न ऋ॒त्विय॑स्तिस्ति॒रे ब॒र्हिरा॑नु॒षक्। अयु॑ज्रन्प्रा॒तरद्र॑यः ॥
स्वर सहित पद पाठस॒त्त: । होता॑ । न॒: । ऋ॒त्विय॑: । ति॒स्ति॒रे । ब॒र्हि: । आ॒नु॒षक् ॥ अयु॑ज्रन् । प्रा॒त: । अद्र॑य: ॥२३.२॥
स्वर रहित मन्त्र
सत्तो होता न ऋत्वियस्तिस्तिरे बर्हिरानुषक्। अयुज्रन्प्रातरद्रयः ॥
स्वर रहित पद पाठसत्त: । होता । न: । ऋत्विय: । तिस्तिरे । बर्हि: । आनुषक् ॥ अयुज्रन् । प्रात: । अद्रय: ॥२३.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(नः) हमारा (होता) ग्रहण करनेवाला, (ऋत्वियः) सब ऋतुओं में प्राप्त होनेवाला [राजा] (सत्तः) बैठा है, (बर्हिः) उत्तम आसन (आनुषक्) निरन्तर [यथाविधि] (तिस्तिरे) बिछाया गया है, (अद्रयः) मेघ [के समान उपकारी पुरुष] (प्रातः) प्रातःकाल में (अयुज्रन्) जुड़ गये हैं ॥२॥
भावार्थ
विद्वान् लोग एकत्र होकर प्रजापालक राजा का उत्तम आसन आदि से सत्कार करके हित के लिये निवेदन करें ॥२॥
टिप्पणी
२−(सत्तः) षद्लृ विशरणगत्यवसादनेषु-क्त। निषण्णोऽस्ति (होता) आदाता (नः) अस्माकम् (ऋत्वियः) अ० ३।२०।१। सर्वकालेषु प्राप्तः (तिस्तिरे) स्तॄञ् आच्छादने-कर्मणि लिट्। ॠत इद्धातोः। पा० ७।१।१००। इति इत्वम्, द्विर्वचनम्। शर्पूर्वाः खयः। पा० ७।४।६१। इति तकारस्य शेषः। लिटस्तझयोरेशिरेच्। पा० ३।४।८१। इति एश् इत्यादेशः। आच्छादितं बभूव (बर्हिः) उत्तममासनम् (आनुषक्) अ० ४।३२।१। निरन्तरम्। यथाविधि (अयुज्रन्) संगता अभूवन् (प्रातः) प्रातःकाले (अद्रयः) अद्रिर्मेघनाम-निघ० १।१०। मेघा इवोपकारिणः पुरुषाः ॥
विषय
यज्ञ+ध्यान+क्रियाशीलता
पदार्थ
१. (न:) = हमारे इस जीवन-यज्ञ में (होता) = यज्ञ करनेवाला यह (ऋत्विक् ऋत्वियः) = समय पर कार्य करनेवाला होता हुआ (सत्त:) = निषण्ण हुआ है, अर्थात् इस शरीर को प्राप्त करके मैं समय पर ठीक अग्निहोत्र आदि कर्मों को करनेवाला बनता हूँ। २. मेरे द्वारा (आनुषक्) = निरन्तर प्रतिदिन (बर्हि:) = जिसमें से वासनाओं का उद्बर्हण कर दिया गया है, वह हृदयासन (तिस्तिरे) = बिछाया गया है। मैं हदय को पवित्र करके उसपर आसीन होने के लिए आपको पुकारता हूँ। ३. (अद्रयः) = ये प्रभु के उपासक [adore आद्रियते] (प्रात:) = प्रात:-प्रातः ही (अयुज्रन्) = अपने को अपने कर्तव्य-कों में युक्त [संगत] कर देते हैं।
भावार्थ
हम समय पर अग्निहोत्र आदि कर्मों को करनेवाले हों। पवित्र हृदयासन पर प्रभु को आसीन करने का प्रयत्न करें। प्रात: से ही अपने कर्त्तव्य को करने में लग जाएँ।
भाषार्थ
हे परमेश्वर! (अद्रयः) पापभक्षी अर्थात् निष्पाप हृदयोंवाले उपासकों ने (प्रातः) प्रातःकाल की उपासना में (अयुज्रन्) योगविधि द्वारा आपको अपने साथ योगयुक्त कर लिया है। और उन्होंने (बर्हिः) हृदयासनों को आपके लिए (आनुषक्) निरन्तर (तिस्तिरे) बिछा रखा है। (ऋत्वियः) मुझे भी यह उपासनाकाल प्राप्त हुआ है, और मैं (सत्तः) उपासना में स्थित होकर (होता न) होता-ऋत्विक् के सदृश आपका आह्वान कर रहा हूँ।
विषय
राजा के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे (इन्द्र) राजन् ! (ऋत्वियः) ऋतु, विशेष काल में यज्ञ करने वाला (होता न) होता, आहुति देने वाला विद्वान् पुरुष जिस प्रकार आसन पर बैठता है उसी प्रकार तू भी (सत्तः) अपने राज्यासन पर यथावसर विराजमान हो। (बर्हिः) वेदि पर, आसन पर (आनुषक्) जिस राज्यासन या राज्य की प्रजा (तिस्तिरे) विस्तृत हो। (प्रातः) प्रातःकाल सोम-सवन के लिये जिस प्रकार (अद्रयः) पाषाण रक्खे हों उसी प्रकार (अद्रयः) न दीर्ण होने वाले वीर क्षत्रिय (अयुज्रन्) तेरे ही सदा साथ रहें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। नवर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Self-integration
Meaning
The yajaka is seated for our yajna according to the season, the seats are fixed and spread in order, the stones have been used for the morning libations.
Translation
The Hotar priest conducting the Yajna according to seasons is seated, the Kusha-grass is regularly strewn and the persons benevolent like clouds are set at work in the morning.
Translation
The Hotar priest conducting the Yajna according to seasons is seated, the Kusha-grass is regularly strewn and the persons benevolent like clouds are set at work in the morning.
Translation
O king, just as the sacrificer, performing the sacrifices according to the seasons, is seated on his seat, ever spread in the altar, accompanied by grinding stones in the morning, similarly mayst thou be ever seated on thy throne, accompanied by the invincible brave warriors.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(सत्तः) षद्लृ विशरणगत्यवसादनेषु-क्त। निषण्णोऽस्ति (होता) आदाता (नः) अस्माकम् (ऋत्वियः) अ० ३।२०।१। सर्वकालेषु प्राप्तः (तिस्तिरे) स्तॄञ् आच्छादने-कर्मणि लिट्। ॠत इद्धातोः। पा० ७।१।१००। इति इत्वम्, द्विर्वचनम्। शर्पूर्वाः खयः। पा० ७।४।६१। इति तकारस्य शेषः। लिटस्तझयोरेशिरेच्। पा० ३।४।८१। इति एश् इत्यादेशः। आच्छादितं बभूव (बर्हिः) उत्तममासनम् (आनुषक्) अ० ४।३२।१। निरन्तरम्। यथाविधि (अयुज्रन्) संगता अभूवन् (प्रातः) प्रातःकाले (अद्रयः) अद्रिर्मेघनाम-निघ० १।१०। मेघा इवोपकारिणः पुरुषाः ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
রাজপ্রজাকর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(নঃ) আমাদের (হোতা) গ্রহণকারী, (ঋত্বিয়ঃ) সকল ঋতুসমূহে প্রাপ্ত [রাজা] (সত্তঃ) বসেছেন, (বর্হিঃ) উত্তম আসন (আনুষক্) নিরন্তর [যথাবিধি] (তিস্তিরে) বিস্তার করা হয়েছে, (অদ্রয়ঃ) মেঘ [এর সমান উপকারী পুরুষ] (প্রাতঃ) প্রাতঃকালে (অয়ুজ্রন্) যুক্ত হয়েছেন॥২॥
भावार्थ
বিদ্বানগণ একত্র হয়ে প্রজাপালক রাজাকে উত্তম আসন আদিতে সৎকার করে হিতের সম্পাদনের জন্য নিবেদন করুক॥২॥
भाषार्थ
হে পরমেশ্বর! (অদ্রয়ঃ) পাপভক্ষী অর্থাৎ নিষ্পাপ হৃদয়যুক্ত উপাসকরা (প্রাতঃ) প্রাতঃকালের উপাসনায় (অয়ুজ্রন্) যোগবিধি দ্বারা আপনাকে নিজের সাথে যোগযুক্ত করেছে। এবং তাঁরা (বর্হিঃ) হৃদয়াসনকে আপনার জন্য (আনুষক্) নিরন্তর (তিস্তিরে) বিস্তার করে রেখেছে। (ঋত্বিয়ঃ) আমাকেও এই উপাসনাকাল প্রাপ্ত হয়েছে, এবং আমি (সত্তঃ) উপাসনায় স্থিত হয়ে (হোতা ন) হোতা-ঋত্বিক্-এর সদৃশ আপনার আহ্বান করছি।
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