अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 23/ मन्त्र 9
अ॒र्वाञ्चं॑ त्वा सु॒खे रथे॒ वह॑तामिन्द्र के॒शिना॑। घृ॒तस्नू॑ ब॒र्हिरा॒सदे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒र्वाञ्च॑म् । त्वा॒ । सु॒खे । रथे॑ । वह॑ताम् । इ॒न्द्र॒ । के॒शिना॑ ॥ घृ॒तस्नू॒ इति॑ घृ॒तऽस्नू॑ । ब॒र्हि: । आ॒ऽसदे॑ ॥२३.९॥
स्वर रहित मन्त्र
अर्वाञ्चं त्वा सुखे रथे वहतामिन्द्र केशिना। घृतस्नू बर्हिरासदे ॥
स्वर रहित पद पाठअर्वाञ्चम् । त्वा । सुखे । रथे । वहताम् । इन्द्र । केशिना ॥ घृतस्नू इति घृतऽस्नू । बर्हि: । आऽसदे ॥२३.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 23; मन्त्र » 9
भाषार्थ -
(केशिना) प्रकाश को प्राप्त हुई हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ (घृतस्नू) तथा जल के सदृश प्रवाहरूप में बहते हुए हमारे भक्तिरसों को आपकी ओर प्रवाहित करती हुई हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ (सुखे रथे) हमारे सुखमय शरीर-रथों में (त्वा) आपको (अर्वाञ्चम्) हमारी ओर (वहताम्) प्रेरित करें। ताकि आप (बर्हिः) हमारे हृदयासनों पर (आ सदे) आ विराजें।
टिप्पणी -
[मन्त्र में इन्द्रियों को अश्वरूप, तथा शरीर को रथरूप में वर्णित किया है। घृतस्नू=घृत=घृ क्षरणे; स्नु प्रस्रवणे। घृत=उदक (निघं০ १.१२)।]