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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 27

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 27/ मन्त्र 1
    सूक्त - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-२७

    यदि॑न्द्रा॒हं यथा॒ त्वमीशी॑य॒ वस्व॒ एक॒ इत्। स्तो॒ता मे॒ गोष॑खा स्यात् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । इ॒न्द्र॒ । अ॒हम् । यथा॑ । त्वम् । ईशीय॑ । वस्व॑: । इत् ॥ स्तो॒ता । मे॒ । गोऽस॑खा । स्या॒त् ॥२७.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदिन्द्राहं यथा त्वमीशीय वस्व एक इत्। स्तोता मे गोषखा स्यात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । इन्द्र । अहम् । यथा । त्वम् । ईशीय । वस्व: । इत् ॥ स्तोता । मे । गोऽसखा । स्यात् ॥२७.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 27; मन्त्र » 1

    भाषार्थ -
    (इन्द्र) हे परमेश्वर! (यथा) जैसे (त्वम्) आप (एक इत) अकेले ही (वस्वः) वैदिक ज्ञान-सम्पत्ति के (ईशीय) अधीश्वर हैं, वैसे (यद्) यदि (अहम्) मैं आपका उपासक, वैदिक ज्ञान-सम्पत्ति का अधीश्वर बन जाऊँ, तो (मे) मेरा (स्तोता) शिष्य (गोषखा) वेदवाणी का सखा (स्यात्) हो जाता,। अर्थात् वह वेदवाणी के रहस्यार्थों का ज्ञाता हो जाता है। [उपासक परमेश्वर से शिकायत करता है कि मैं आपका स्तोता हूँ, परन्तु आपकी कृपा अभी तक नहीं हुई कि मैं भी वेदवाणी के रहस्यार्थों को जान पाता।]

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