अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 27/ मन्त्र 2
सूक्त - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
सूक्तम् - सूक्त-२७
शिक्षे॑यमस्मै॒ दित्से॑यं॒ शची॑पते मनी॒षिणे॑। यद॒हं गोप॑तिः॒ स्याम् ॥
स्वर सहित पद पाठशिक्षे॑यम् । अ॒स्मै॒ । दित्से॑यम् । शची॑ऽपते । म॒नी॒षिणे॑ । यत् । अ॒हम् । गोऽप॑ति: । स्याम् ॥२७.२॥
स्वर रहित मन्त्र
शिक्षेयमस्मै दित्सेयं शचीपते मनीषिणे। यदहं गोपतिः स्याम् ॥
स्वर रहित पद पाठशिक्षेयम् । अस्मै । दित्सेयम् । शचीऽपते । मनीषिणे । यत् । अहम् । गोऽपति: । स्याम् ॥२७.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 27; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(शचीपते) हे प्रज्ञा और वेदवाणियों के पति! (यद्) जो (अहम्) मैं (गोपतिः) वेदवाणियों का और समग्र पृथिवी का पति (स्याम्) होऊं, तो मैं (अस्मै) इस (मनीषिणे) बुद्धिमान् मनस्वी अपने स्तोता को (शिक्षेयम्) वेदवाणियों में शिक्षित करुं, और इसे (दित्सेयम्) पार्थिव-सम्पत्तियों का दान भी करूँ।
टिप्पणी -
[उपासक वेदज्ञान और पार्थिव सम्पत्ति, इन दोनों का पति होना चाहता है। इसीलिए उसे “मन्त्र २” के अनुसार वेदवाणी के रहस्यार्थों का परिज्ञान नहीं होने पाया। कहावत है कि सरस्वती और लक्ष्मी, ये दोनों इकठ्ठी नहीं रहतीं। उपासक पार्थिव सम्पत्तियों को भी गर्धा रखता है, और वैदिक रहस्यार्थों की भी। इसलिए वह असफल है। [गो=वाक्=वेदवाणी (निघं০ १.११); तथा पृथिवी (निघं০ १.१)।]