अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 27/ मन्त्र 5
सूक्त - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
सूक्तम् - सूक्त-२७
य॒ज्ञ इन्द्र॑मवर्धय॒द्यद्भूमिं॒ व्य॑वर्तयत्। च॑क्रा॒ण ओ॑प॒शं दि॒वि ॥
स्वर सहित पद पाठय॒ज्ञ: । इन्द्र॑म् । अ॒व॒र्ध॒य॒त् । यत् । भूमि॑म् । वि । अव॑र्तयत् ॥ च॒क्रा॒ण: । ओ॒प॒शम् । दि॒वि ॥२७.५॥
स्वर रहित मन्त्र
यज्ञ इन्द्रमवर्धयद्यद्भूमिं व्यवर्तयत्। चक्राण ओपशं दिवि ॥
स्वर रहित पद पाठयज्ञ: । इन्द्रम् । अवर्धयत् । यत् । भूमिम् । वि । अवर्तयत् ॥ चक्राण: । ओपशम् । दिवि ॥२७.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 27; मन्त्र » 5
भाषार्थ -
(ओपशम्) सौरमण्डल के शिरोभूषणरूप सूर्य को (दिवि) द्युलोक में (चक्राणः) प्रकट करते हुए परमेश्वर ने (यद्) जो (भूमिम्) भूमि को (व्यवर्तयत्) सूर्य के चारों ओर वृत्ताकार-कक्षा में घुमाया है, इससे (यज्ञः) संसार-यज्ञ (इन्द्रम्) परमेश्वर की महिमा को (अवर्धयत्) बढ़ा रहा है।