अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 30/ मन्त्र 3
सो अ॑स्य॒ वज्रो॒ हरि॑तो॒ य आ॑य॒सो हरि॒र्निका॑मो॒ हरि॒रा गभ॑स्त्योः। द्यु॒म्नी सु॑शि॒प्रो हरि॑मन्युसायक॒ इन्द्रे॒ नि रू॒पा हरि॑ता मिमिक्षिरे ॥
स्वर सहित पद पाठस: । अ॒स्य॒ । वज्र॑: । हरि॑त: । य: । आ॒य॒स: । हरि॑: । निका॑म: । हरि॑: । आ । गभ॑स्त्यो: ॥ द्यु॒म्नी । सु॒ऽशि॒प्र: । हरि॑मन्युऽसायक: । इन्द्रे॑ । नि । रू॒पा । हरि॑ता । मि॒मि॒क्षि॒रे॒ ।३०.३॥
स्वर रहित मन्त्र
सो अस्य वज्रो हरितो य आयसो हरिर्निकामो हरिरा गभस्त्योः। द्युम्नी सुशिप्रो हरिमन्युसायक इन्द्रे नि रूपा हरिता मिमिक्षिरे ॥
स्वर रहित पद पाठस: । अस्य । वज्र: । हरित: । य: । आयस: । हरि: । निकाम: । हरि: । आ । गभस्त्यो: ॥ द्युम्नी । सुऽशिप्र: । हरिमन्युऽसायक: । इन्द्रे । नि । रूपा । हरिता । मिमिक्षिरे ।३०.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 30; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(सः) वह परमेश्वर (अस्य) इस उपासक का मानो (वज्रः) वज्र है, (यः) जो कि (हरितः) उपासक के कामादि शत्रु का हरण करता है, और (आयसः) लोहसमान सुदृढ़ है। (हरिः) पापहारी परमेश्वर उपासक की (निकामः) कामना का अन्तिम ध्येय है। (हरिः) पापहारी परमेश्वर ही उपासक के (गभस्त्योः) हाथ आदि कर्मेन्द्रियों का विषय होता है। तब उपासक (द्युम्नी) द्युतिमान् यशस्वी तथा (सुशिप्रः) सुमुख हो जाता, और (हरिमन्युसायकः) पापहारी परमेश्वर के मन्युरूपी बाण द्वारा कामादि का विनाश कर देता है। (इन्द्रे) परमेश्वर में (हरिता रूपा) सब मनोहारी रूप (नि मिमिक्षिरे) संमिश्रित हैं, अर्थात् सूर्य चान्द तारागण आदि सभी स्वरूप विश्वकर्मा परमेश्वर के ज्ञान में निहित रहते हैं।
टिप्पणी -
[गभस्तयः=अंगुली नाम (निघं০ २.५)। गभस्ती=बाहुनाम (निघं০ २.४८)।]