अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 30/ मन्त्र 4
दि॒वि न के॒तुरधि॑ धायि हर्य॒तो वि॒व्यच॒द्वज्रो॒ हरि॑तो॒ न रंह्या॑। तु॒दद॒हिं हरि॑शिप्रो॒ य आ॑य॒सः स॒हस्र॑शोका अभवद्धरिम्भ॒रः ॥
स्वर सहित पद पाठदि॒वि । न । के॒तु: । अधि॑ । धा॒यि॒ । ह॒र्य॒त: । वि॒व्यच॑त् । वज्र॑: । हरि॑त: । न । रंह्या॑ ॥ तु॒दत् । अहि॑म् । हरि॑ऽशिप्र: । य: । आ॒य॒स: । स॒हस्र॑ऽशोका: । अ॒भ॒व॒त् । ह॒रि॒म्ऽभ॒र: ॥३०.४॥
स्वर रहित मन्त्र
दिवि न केतुरधि धायि हर्यतो विव्यचद्वज्रो हरितो न रंह्या। तुददहिं हरिशिप्रो य आयसः सहस्रशोका अभवद्धरिम्भरः ॥
स्वर रहित पद पाठदिवि । न । केतु: । अधि । धायि । हर्यत: । विव्यचत् । वज्र: । हरित: । न । रंह्या ॥ तुदत् । अहिम् । हरिऽशिप्र: । य: । आयस: । सहस्रऽशोका: । अभवत् । हरिम्ऽभर: ॥३०.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 30; मन्त्र » 4
भाषार्थ -
(दिवि) द्युलोक में (न) जैसे (केतुः) ज्ञान के हेतु सूर्य (अधिधायि) सौर-लोक के अधिष्ठातृरूप में स्थापित है, वैसे (दिवि) मस्तिष्क (केतुः) प्रज्ञावान् तथा (हर्यतः) कान्तिमान् परमेश्वर (अधिधायि) अधिष्ठातृरूप में स्थित है। (हरितः) हरण करनेवाले (वज्रः) विद्युत्-वज्र (न) के सदृश, परमेश्वर का (वज्रः) न्याय-वज्र (रंह्या) वेग से (विव्यचत्) छिपे-छिपे प्रहार करता है। परमेश्वर का (यः) जो (आयसः) लोहसमान सुदृढ़ (वज्रः) न्याय-वज्र है, जो कि (हरिशिप्रः) पापहारी स्वरूपवाला है, वह (अहिम्) उपासक के सांप की तरह विषैले-पापों को (तुदत्) व्यथित कर देता है। तब उपासक, जो कि (हरभरः) परमेश्वर को भक्तिरसों की भेटों द्वारा भर देता है, (सहस्रशोकाः) हजारों का आश्रय (अभवत्) बन जाता है।
टिप्पणी -
[सहस्रशोकाः=सहस्रश+ओकस् (गृह, आश्रय)।]