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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 48

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 48/ मन्त्र 1
    सूक्त - खिलः देवता - गौः, सूर्यः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-४८

    अ॒भि त्वा॒ वर्च॑सा॒ गिरः॑ सि॒ञ्चन्ती॒राच॑र॒ण्यवः॑। अ॒भि व॒त्सं न धे॒नवः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि । त्वा॒ । वर्च॑सा । गिर॒: । सिञ्च॑न्ती: । आच॑र॒ण्यव॑: ॥ अ॒भि । व॒त्सम् । न । धे॒नव॑: ॥४८.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभि त्वा वर्चसा गिरः सिञ्चन्तीराचरण्यवः। अभि वत्सं न धेनवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभि । त्वा । वर्चसा । गिर: । सिञ्चन्ती: । आचरण्यव: ॥ अभि । वत्सम् । न । धेनव: ॥४८.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 48; मन्त्र » 1

    भाषार्थ -
    (धेनवः) दुधार गौएँ (वत्सम् अभि) अपने-अपने बछड़े के प्रति (न) जैसे (सिञ्चन्तीः) दूध की धाराएँ सींचती हैं, वैसे हे परमेश्वर! (वर्चसा) ज्योति के साथ वर्तमान (त्वा अभि) आपके प्रति (गिरः) स्तुति-वाणियाँ (सिञ्चन्तीः) भक्तिरस सींचती हुई (आचरण्यवः) गौओं का सा आचरण कर रही हैं। [आचरण्यवः=आचरण+क्यच्+उ।]

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