अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 47/ मन्त्र 21
अयु॑क्त स॒प्त शु॒न्ध्युवः॒ सूरो॒ रथ॑स्य न॒प्त्य:। ताभि॑र्याति॒ स्वयु॑क्तिभिः ॥
स्वर सहित पद पाठअयु॑क्त: । स॒प्त । शु॒न्ध्युव॑: । सुर॑: । रथ॑स्य । न॒प्त्य॑: ॥ ताभि॑: । या॒ति॒ । स्वयु॑क्तिऽभि: ॥४७.२१॥
स्वर रहित मन्त्र
अयुक्त सप्त शुन्ध्युवः सूरो रथस्य नप्त्य:। ताभिर्याति स्वयुक्तिभिः ॥
स्वर रहित पद पाठअयुक्त: । सप्त । शुन्ध्युव: । सुर: । रथस्य । नप्त्य: ॥ ताभि: । याति । स्वयुक्तिऽभि: ॥४७.२१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 47; मन्त्र » 21
भाषार्थ -
(सप्त) सात शक्तियों को, (अयुक्त) जब योगसाधनाओं द्वारा, परमेश्वर अपने में लीन कर लेता है, तब ये (शुन्ध्युवः) शुद्ध पवित्र हो जाती हैं। तदनन्तर परमेश्वर (रथस्थ) ध्यानी के शरीर-रथ का (सूरः) प्रेरक हो जाता है, (नप्त्यः) और सात शक्तियाँ विषयों में पतित नहीं होने पातीं। परमेश्वर इन शक्तियों को (स्वयुक्तिभिः) अपने साथ योगयुक्त करके, (ताभिः) इनके द्वारा (याति) योगी के कार्यों को निभाने लगता है।