अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 47/ मन्त्र 1
तमिन्द्रं॑ वाजयामसि म॒हे वृ॒त्राय॒ हन्त॑वे। स वृषा॑ वृष॒भो भु॑वत् ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । इन्द्र॑म् । वा॒ज॒या॒म॒सि॒ । म॒हे । वृ॒त्राय॑ । हन्त॑वे ॥ स: । वृषा॑ । वृ॒ष॒भ: । भु॒व॒त् ॥४७.१॥
स्वर रहित मन्त्र
तमिन्द्रं वाजयामसि महे वृत्राय हन्तवे। स वृषा वृषभो भुवत् ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । इन्द्रम् । वाजयामसि । महे । वृत्राय । हन्तवे ॥ स: । वृषा । वृषभ: । भुवत् ॥४७.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 47; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(वृत्राय) आत्मिक शक्तियों पर आवरण डालनेवाले (महे) महावृत्र अर्थात् अविद्या के (हन्तवे) हनन के लिए, (तम् इन्द्रम्) उस परमेश्वर की हम (वाजयामसि) अर्चनाएँ करते हैं। (सः) वह (वृषा) आनन्दरसवर्षी (वृषभः) हम पर सुखों की वर्षा करनेवाला (भुवत्) हो।
टिप्पणी -
[महे वृत्राय—महावृत्र है अविद्या, अर्थात् अनित्य, अशुचि, दुःख और अनात्मा को नित्य, शुचि, सुख और आत्मा समझ बैठना। यथा—अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या (योग २.५); तथा अविद्या क्षेत्रमुत्तरेषां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोदाराणाम् (योग २.४); अर्थात् अविद्या जन्मभूमि है अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश की। वाजयामसि, वाजति=अर्चतिकर्मा (निघं০ ३.१४)।]