अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 47/ मन्त्र 13
उदु॒ त्यं जा॒तवे॑दसं दे॒वं व॑हन्ति के॒तवः॑। दृ॒शे विश्वा॑य॒ सूर्य॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । ऊं॒ इति॑ । त्यम् । जा॒तऽवे॑दसम् । दे॒वम् । व॒ह॒न्ति॒ । के॒तव॑: ॥ दृ॒शे । विश्वा॑य । सूर्य॑म् ॥४७.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
उदु त्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः। दृशे विश्वाय सूर्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । ऊं इति । त्यम् । जातऽवेदसम् । देवम् । वहन्ति । केतव: ॥ दृशे । विश्वाय । सूर्यम् ॥४७.१३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 47; मन्त्र » 13
भाषार्थ -
(त्यम्) उस प्रसिद्ध, (जातवेदसम्) प्रत्येक उत्पन्न पदार्थ में विद्यमान, प्रत्येक उत्पन्न पदार्थ के ज्ञाता, ऐश्वर्यों के स्वामी और वेदों के प्रकट करनेवाले, (देवम्) दिव्यगुणों से सम्पन्न, (सूर्यम्) सूर्यसदृश प्रकाशमान, आदित्यवर्णी परमेश्वर को, (केतवः) उसके ज्ञापक चिह्न, (उत्) उत्कर्षरूप में, (वहन्ति) ज्ञापित कर रहे हैं, ताकि (विश्वाय दृशे) समग्र प्रजाजन उसे जान सकें, और समय पर उसका दर्शन कर सकें।
टिप्पणी -
[जातवेदसम्=जाते जाते विद्यत इति वा, जातानि वेद, जातवित्तो वा जातधनः, जातविद्यो वा जातप्रज्ञानः (निरु০ ७.५.१९)। तथा “जातमिदं सर्वं सचराचरं सृष्ट्युत्पत्तिप्रलयन्यायेनास्थाय वेत्ति यः” (निरु০ १४.२.४६)। केतवः=न्यायनियम, कर्मव्यवस्था, जगत्कर्तृत्व, ज्ञान का आदिस्रोत, सृष्टिनियम, तथा प्रत्यक्षदर्शन आदि परमेश्वरीय सत्ता के ज्ञापक चिह्न हैं।]