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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 47/ मन्त्र 10
    सूक्त - मधुच्छन्दाः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-४७

    यु॒ञ्जन्ति॑ ब्र॒ध्नम॑रु॒षं चर॑न्तं॒ परि॑ त॒स्थुषः॑। रोच॑न्ते रोच॒ना दि॒वि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒ञ्जन्ति॑ । ब॒ध्नम् । अ॒रु॒षम् । चर॑न्तम् । परि॑ । त॒स्थुष॑: ॥ रोच॑न्ते । रो॒च॒ना । दि॒वि ॥४७.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युञ्जन्ति ब्रध्नमरुषं चरन्तं परि तस्थुषः। रोचन्ते रोचना दिवि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युञ्जन्ति । बध्नम् । अरुषम् । चरन्तम् । परि । तस्थुष: ॥ रोचन्ते । रोचना । दिवि ॥४७.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 47; मन्त्र » 10

    भाषार्थ -
    (ब्रध्नम्) महान्, (अरुषम्) रोष-क्रोध से रहित, अर्थात् शान्तस्वरूप, (परिचरन्तम्) तथा सर्वगत परमेश्वर को, (तस्थुषः) ध्यानावस्थित योगिजन (युञ्जन्ति) योगविधि द्वारा अपने साथ युक्त कर लेते हैं। इसी परमेश्वर के प्रकाश से (दिवि) द्युलोक में (रोचना) चमकते हुए नक्षत्र-तारागण (रोचन्ते) चमक रहे हैं, तथा इसी परमेश्वर की (रोचना) रुचिकर दीप्तियाँ तब (दिवि) मस्तिष्क में (रोचन्ते) चमकने लगती हैं।

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