अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 48/ मन्त्र 6
त्रिं॒शद्धामा॒ वि रा॑जति॒ वाक्प॑त॒ङ्गो अ॑शिश्रियत्। प्रति॒ वस्तो॒रह॒र्द्युभिः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठत्रिं॒शत् । धाम॑ । वि । रा॒ज॒ति॒ । वाक् । प॒त॒ङ्ग: । अ॒शि॒श्रि॒य॒त् ॥ प्रति॑ । वस्तो॑: । अह॑: । द्युऽभि॑: ॥४८.६॥
स्वर रहित मन्त्र
त्रिंशद्धामा वि राजति वाक्पतङ्गो अशिश्रियत्। प्रति वस्तोरहर्द्युभिः ॥
स्वर रहित पद पाठत्रिंशत् । धाम । वि । राजति । वाक् । पतङ्ग: । अशिश्रियत् ॥ प्रति । वस्तो: । अह: । द्युऽभि: ॥४८.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 48; मन्त्र » 6
भाषार्थ -
(पतङ्गः) जीवात्म-पक्षी, जब तक (त्रिंशत् धामा=धामानि) दिन-रात के ३० मुहूर्तों में, देह में (अशिश्रियत्) परमेश्वर के नियमानुसार आश्रय पाता है, तब तक (वाक्) वाक् आदि इन्द्रियाँ भी, जागरित तथा प्रसुप्तावस्था में, (प्रति वस्तोः) प्रतिदिन, (अहः द्युभिः) दिन के आरम्भक प्रकाशों से लेकर, (त्रिंशत् धामा) तीस मुहूर्तों तक (वि राजति) शरीर में विराजमान रहती हैं।
टिप्पणी -
[पतङ्ग का अर्थ होता है—पक्षी। पतङ्ग का धात्वर्थ है—“उड़ जाने वाला”। जीवात्मा को मन्त्र में पतङ्ग कहा है। त्रिशद् धामा=रात-दिन में ३० मुहूर्त होते हैं। मन्त्र में यह दर्शाया है कि शरीर में इन्द्रियाँ तभी तक काम करती हैं, जब तक कि शरीर में जीवात्मा की सत्ता है।]