अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 48/ मन्त्र 4
आयं गौः पृश्नि॑रक्रमी॒दस॑दन्मा॒तरं॑ पु॒रः। पि॒तरं॑ च प्र॒यन्त्स्व: ॥
स्वर सहित पद पाठआ । अ॒यम् । गौ: । पृश्नि॑: । अ॒क्र॒मी॒त् । अस॑दत् । मा॒तर॑म् । पु॒र: ॥ पि॒तर॑म् । च॒ । प्र॒ऽयन् । स्व॑: ॥४८.४॥
स्वर रहित मन्त्र
आयं गौः पृश्निरक्रमीदसदन्मातरं पुरः। पितरं च प्रयन्त्स्व: ॥
स्वर रहित पद पाठआ । अयम् । गौ: । पृश्नि: । अक्रमीत् । असदत् । मातरम् । पुर: ॥ पितरम् । च । प्रऽयन् । स्व: ॥४८.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 48; मन्त्र » 4
भाषार्थ -
(पृश्निः) नाना रूपरंगोंवाला (अयम्) यह (गौः) पृथिवीलोक, (मातरम्) अन्तरिक्ष में (असदत्) स्थित है, और परमेश्वर के सामर्थ्य द्वारा, (पुरः) पूर्व की ओर, (स्वः) प्रकाशमान (पितरम्) अपने पिता सूर्य की ओर (प्रयन्) प्रयाण करता हुआ, (अक्रमीत्) उसकी परिक्रमा कर रहा है।
टिप्पणी -
[मातरि=अन्तरिक्षे (निरु০ ७.७.२६)। पितरम्=पृथिवीलोक का पिता है सूर्य। चूंकि पृथिवीलोक सूर्य से अलग हुआ है। और यह अन्तरिक्षरूपी माता की गोद में स्थित है, तथा पूर्व की ओर चलता हुआ सूर्य की परिक्रमा कर रहा है।]