अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 63/ मन्त्र 8
येना॒ दश॑ग्व॒मध्रि॑गुं वे॒पय॑न्तं॒ स्वर्णरम्। येना॑ समु॒द्रमावि॑था॒ तमी॑महे ॥
स्वर सहित पद पाठयेन॑ । दश॑ऽग्वम् । अध्रिऽगुम् । वे॒पय॑न्तम् । स्व॑:ऽतरम् ॥ येन॑ । स॒मु॒द्रम् । आवि॑थ । तम् । ई॒म॒हे॒ ॥६३.८॥
स्वर रहित मन्त्र
येना दशग्वमध्रिगुं वेपयन्तं स्वर्णरम्। येना समुद्रमाविथा तमीमहे ॥
स्वर रहित पद पाठयेन । दशऽग्वम् । अध्रिऽगुम् । वेपयन्तम् । स्व:ऽतरम् ॥ येन । समुद्रम् । आविथ । तम् । ईमहे ॥६३.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 63; मन्त्र » 8
भाषार्थ -
हे परमेश्वर! (येन) यतः आप—(दशग्वम्) दस इन्द्रियोंवाले, परन्तु मोक्षमार्ग पर (अध्रिगुम्) अप्रतिहत प्रगतिवाले, (वेपयन्तम्) कर्मिष्ठ, और अतएव (स्वर्णरम्) स्वर्गीय-नर की (आविथ) रक्षा करते हैं, और (येन) यतः आप (समुद्रम्) हमारे हृदय-समुद्रों में (आविथ) प्रवेश पाये हुए हैं, इसलिए (तम्) उस आप को (ईमहे) हम प्राप्त होते हैं।
टिप्पणी -
[दस इन्द्रियों पर विजय पाकर जो कर्मिष्ठ व्यक्ति मोक्ष मार्ग पर दृढ़तापूर्वक प्रगति करता रहता है, वह नर स्वर्गीय नर हो जाता है, और परमेश्वर उसकी रक्षा करता है। वेपः=कर्म (निघं০ २.१)। आविथ=अव (रक्षा तथा प्रवेश)। समुद्र, सिन्धु हृदय (अथर्व০ १०.२.११)।]