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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 67

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 67/ मन्त्र 5
    सूक्त - गृत्समदः देवता - अग्निः छन्दः - जगती सूक्तम् - सूक्त-६७

    आ व॑क्षि दे॒वाँ इ॒ह वि॑प्र॒ यक्षि॑ चो॒शन्हो॑त॒र्नि ष॑दा॒ योनि॑षु त्रि॒षु। प्रति॑ वीहि॒ प्रस्थि॑तं सो॒म्यं मधु॒ पिबाग्नी॑ध्रा॒त्तव॑ भा॒गस्य॑ तृप्णुहि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । व॒क्षि॒ । दे॒वान् । इ॒ह । वि॒प्र॒ । यक्षि॑ । च॒ । उ॒शन् । हो॒त॒: । नि । स॒द॒ । योनि॑षु । त्रि॒षु ॥ प्रति॑ । वी॒हि॒ । प्रऽस्थि॑तम् । सो॒म्यम् । मधु॑ । पिब॑ । आग्नी॑ध्रात् । तव॑ । भा॒गस्य॑ । तृ॒ष्णु॒हि॒ ॥६७.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ वक्षि देवाँ इह विप्र यक्षि चोशन्होतर्नि षदा योनिषु त्रिषु। प्रति वीहि प्रस्थितं सोम्यं मधु पिबाग्नीध्रात्तव भागस्य तृप्णुहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । वक्षि । देवान् । इह । विप्र । यक्षि । च । उशन् । होत: । नि । सद । योनिषु । त्रिषु ॥ प्रति । वीहि । प्रऽस्थितम् । सोम्यम् । मधु । पिब । आग्नीध्रात् । तव । भागस्य । तृष्णुहि ॥६७.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 67; मन्त्र » 5

    भाषार्थ -
    (विप्र) हे मेधावी उपासक! (इह) इस उपासना-यज्ञ में तू (देवान्) अन्य दिव्य व्यक्तियों को (आवक्षि) आमन्त्रित किया कर, (यक्षि) और उन्हें आमन्त्रित करके उपासना-यज्ञ रचा या किया कर। (होतः) उपासना-यज्ञ में दिव्य व्यक्तियों का आह्वान करनेवाले हे उपासक! तू (उशन्) चाहना पूर्वक (त्रिषु योनिषु) ऋक्-साम-यजुरूपी तीन माताओं के गर्भ में (निषदा) स्थिररूप में आसीन होकर, (आग्नीध्रात्) तुझ में ज्ञानाग्नि की ज्योति प्रकट करनेवाले परमेश्वर से (प्रस्थितम्) प्राप्त (मधु सोम्यम्) दुग्ध समान पौष्टिक और मधुर आनन्दरस का (पिब) पान किया कर, और (तव) तेरा जो (भागस्य) आनन्दरस का भाग है, [तेन] उसके लिए सदा (तृष्णुहि) तृषित हुआ कर।

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