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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 68

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 68/ मन्त्र 5
    सूक्त - मधुच्छन्दाः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-६८

    उ॒त ब्रु॑वन्तु नो॒ निदो॒ निर॒न्यत॑श्चिदारत। दधा॑ना॒ इन्द्र॒ इद्दुवः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । ब्रु॒व॒न्तु॒ । न॒: । न‍िद॑: । नि: । अ॒न्यत॑: । चि॒त् । आ॒र॒त॒ ॥ दधा॑ना: । इन्द्रे॑ । इत् । दुव॑: ॥६८.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत ब्रुवन्तु नो निदो निरन्यतश्चिदारत। दधाना इन्द्र इद्दुवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत । ब्रुवन्तु । न: । न‍िद: । नि: । अन्यत: । चित् । आरत ॥ दधाना: । इन्द्रे । इत् । दुव: ॥६८.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 68; मन्त्र » 5

    भाषार्थ -
    (उत) तथा उपासक (निदः) निन्दावचन (नो ब्रवन्तु) न बोला करें। (अन्यतः) अन्य व्यक्तियों से यदि निन्दावचन आएँ, तो उनके प्रति (चित्) भी (नो)(निर् आरत) कष्ट पहुँचाएँ। उपासक (इन्द्रे इत्) परमेश्वर में ही (दुवः) अपनी परिचर्याएँ, अर्थात् सेवाएँ समर्पित करते रहें।

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