अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 68/ मन्त्र 7
एमाशुमा॒शवे॑ भर यज्ञ॒श्रियं॑ नृ॒माद॑नम्। प॑त॒यन्म॑न्द॒यत्स॑खम् ॥
स्वर सहित पद पाठआ । ई॒म् । आ॒शुम् । आ॒शवे॑ । भ॒र॒ । य॒ज्ञ॒ऽश्रि॑य॑म् । नृ॒ऽमाद॑नम् ॥ प॒त॒यत् । म॒न्द॒यत्ऽस॑ख्यम् ॥६८.७॥
स्वर रहित मन्त्र
एमाशुमाशवे भर यज्ञश्रियं नृमादनम्। पतयन्मन्दयत्सखम् ॥
स्वर रहित पद पाठआ । ईम् । आशुम् । आशवे । भर । यज्ञऽश्रियम् । नृऽमादनम् ॥ पतयत् । मन्दयत्ऽसख्यम् ॥६८.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 68; मन्त्र » 7
भाषार्थ -
हे उपासक! (आशुम्) सर्वत्र व्याप्त, (यज्ञश्रियम्) उपासनायज्ञ की एकमात्र श्री, (नृमादनम्) नर-नारियों को हर्ष-उल्लास के दाता, (पतयत् मन्दयत् सखम्) जो इसके साथ सखिभाव रखते है उन्हें आध्यात्मिक सम्पत्तियों द्वारा सम्पत्तिशाली करनेवाले, तथा उन्हें तृप्त और आनन्दित करनेवाले (ईम्) इस परमेश्वर को, (आशवे) शीघ्र सफल होने के लिए, (आ भर) अपनी ओर झुका ले। [आभर=आहर।]