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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 76

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 76/ मन्त्र 6
    सूक्त - वसुक्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-७६

    मात्रे॒ नु ते॒ सुमि॑ते इन्द्र पू॒र्वी द्यौर्म॒ज्मना॑ पृथि॒वी काव्ये॑न। वरा॑य ते घृ॒तव॑न्तः सु॒तासः॒ स्वाद्म॑न्भवन्तु पी॒तये॒ मधू॑नि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मात्रे॒ इति॑ । नु । ते॒ । सुमि॑ते॒ इति॒सुऽमि॑ते । इ॒न्द्र॒ । पू॒र्वी इति॑ । द्यौ: । म॒ज्मना॑ । पृ॒थि॒वी । काव्ये॑न ॥ वरा॑य । ते॒ । घृ॒तऽव॑न्त: । सु॒तास॑: । स्वाद्म॑न् । भ॒व॒न्तु॒ । पी॒तये॑। मधू॑नि ॥७६.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मात्रे नु ते सुमिते इन्द्र पूर्वी द्यौर्मज्मना पृथिवी काव्येन। वराय ते घृतवन्तः सुतासः स्वाद्मन्भवन्तु पीतये मधूनि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मात्रे इति । नु । ते । सुमिते इतिसुऽमिते । इन्द्र । पूर्वी इति । द्यौ: । मज्मना । पृथिवी । काव्येन ॥ वराय । ते । घृतऽवन्त: । सुतास: । स्वाद्मन् । भवन्तु । पीतये। मधूनि ॥७६.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 76; मन्त्र » 6

    भाषार्थ -
    (इन्द्र) हे परमेश्वर! (ते) आपके (मज्मना) बल से (पूर्वी) पूर्वकाल से प्रकट हुआ (द्यौः) द्युलोक, तथा आपके बल से पूर्वकाल से प्रकट हुई (काव्येन पृथिवी) वेदकाव्य से सम्पन्न पृथिवी—ये दोनों, (नु) निश्चय से, (सुमिते) सुविज्ञात (मात्रे) निर्माता आप में आश्रय पाए हुए हैं। (स्वाद्मन्) हे भक्तिरस का आस्वादन लेनेवाले! (घृतवन्तः) अग्निहोत्र में घृताहुतियोंवाले या ज्ञानप्रकाश से प्रकाशित (सुतासः) उपासक-पुत्र, (ते) आप द्वारा (वराय) वरण करने योग्य हो जाएँ, तथा आपके (मधूनि) मधुर आनन्दरसों के (पीतये) पीने के योग्य (भवन्तु) हो जाएँ—यह हमारी प्रार्थना है।

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