अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 87/ मन्त्र 3
ज॑ज्ञा॒नः सोमं॒ सह॑से पपाथ॒ प्र ते॑ मा॒ता म॑हि॒मान॑मुवाच। एन्द्र॑ पप्राथो॒र्वन्तरि॑क्षं यु॒धा दे॒वेभ्यो॒ वरि॑वश्चकर्थ ॥
स्वर सहित पद पाठज॒ज्ञा॒न: । सोम॑म् । सह॑से । प॒पा॒थ॒ । प्र । ते॒ । मा॒ता । म॒हि॒मान॑म् । उ॒वा॒च॒ ॥ आ । इ॒न्द्र॒ । प॒प्रा॒थ॒ । उ॒रु । अ॒न्तरि॑क्षम् । यु॒धा । दे॒वेभ्य॑: । वरि॑व: । च॒क॒र्थ॒ ॥८७.३॥
स्वर रहित मन्त्र
जज्ञानः सोमं सहसे पपाथ प्र ते माता महिमानमुवाच। एन्द्र पप्राथोर्वन्तरिक्षं युधा देवेभ्यो वरिवश्चकर्थ ॥
स्वर रहित पद पाठजज्ञान: । सोमम् । सहसे । पपाथ । प्र । ते । माता । महिमानम् । उवाच ॥ आ । इन्द्र । पप्राथ । उरु । अन्तरिक्षम् । युधा । देवेभ्य: । वरिव: । चकर्थ ॥८७.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 87; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
हे परमेश्वर! (जज्ञानः) प्रकट हुए आप, जब (सहसे) उपासक के बल तथा साहस की वृद्धि के निमित्त, उसके (सोमम्) भक्तिरस की (पपाथ) रक्षा करते हैं, तब सात्विक चित्तवृत्तिरूप (माता) जीवात्मा की माता, (ते) आप की (महिमानम्) महिमा का (प्र उवाच) कथन, उपासक के प्रति करती है। (इन्द्र) हे परमेश्वर! आप (उरु) विस्तृत (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष में (पप्राथ) भरपूर हुए-हुए हैं। और आप ही देवासुर-संग्रामों में, (युधा) असुरों के साथ मानो युद्ध करके, (देवेभ्यः) दिव्य-उपासकों के लिए, (वरिवः) मोक्षधन (चकर्थ) प्रकट करते हैं।
टिप्पणी -
[माता=प्रकृष्ट सात्विक चित्तवृत्ति में, जीवात्मा को, निज आत्मस्वरूप का साक्षात्कार होता है। अतः इस चित्तवृत्ति को माता कहा है। तथा ओ३म् के जाप और ओ३म्-वाच्य परमेश्वर के ध्यान द्वारा, इसी प्रकृष्ट सत्त्वमयी चित्त्वृत्ति में परमेश्वरीय महिमा भी प्रकट होती है। अतः मानो चित्तवृत्ति ने परमेश्वरीय महिमा का कथन किया है।]