अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 10/ मन्त्र 4
सूक्त - अथर्वा
देवता - रात्रिः, धेनुः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - रायस्पोषप्राप्ति सूक्त
इ॒यमे॒व सा या प्र॑थ॒मा व्यौच्छ॑दा॒स्वित॑रासु चरति॒ प्रवि॑ष्टा। म॒हान्तो॑ अस्यां महि॒मानो॑ अ॒न्तर्व॒धूर्जि॑गाय नव॒गज्जनि॑त्री ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒यम् । ए॒व । सा । या । प्र॒थ॒मा । वि॒ऽऔच्छ॑त् । आ॒सु । इत॑रासु । च॒र॒ति॒ । प्रऽवि॑ष्टा । म॒हान्त॑: । अ॒स्या॒म् । म॒हि॒मान॑: । अ॒न्त: । व॒धू: । जि॒गा॒य॒ । न॒व॒ऽगत् । जनि॑त्री ॥१०.४॥
स्वर रहित मन्त्र
इयमेव सा या प्रथमा व्यौच्छदास्वितरासु चरति प्रविष्टा। महान्तो अस्यां महिमानो अन्तर्वधूर्जिगाय नवगज्जनित्री ॥
स्वर रहित पद पाठइयम् । एव । सा । या । प्रथमा । विऽऔच्छत् । आसु । इतरासु । चरति । प्रऽविष्टा । महान्त: । अस्याम् । महिमान: । अन्त: । वधू: । जिगाय । नवऽगत् । जनित्री ॥१०.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 10; मन्त्र » 4
भाषार्थ -
(इयम् एव सा) यह ही वह (प्रथमा) पहली उषा है (या) जिससे कि (इतरासु प्रविष्टा) अन्य उषाओं में प्रविष्ट होकर (व्यौच्छत्) तमस् का निरसन किया है, (चरति) और उनमें विचरती है। (अस्याम् अन्तः) इस पहली उषा के भीतर (महान्तः महिमानः) अपरिमित महिमाएँ हैं, (जिगाय) अत: यह विजेत्री हुई है, जैसेकि (नवगत वधू) पतिगृह में नई-नई गई वधू, (जनित्री) सन्तानोत्पादिका बनकर, विजयवाली हो जाती है।
टिप्पणी -
[सृष्टि के प्रारम्भ में प्रकट हुई पहली उषा ही मानो तदनन्तर प्रकट हुई उषाओं में प्रकट हो रही है। इन सब उषाओं के स्वरूपों में साम्य है। अतः इन उषाओं में प्रथमोत्पन्न उषा का प्रकट होना कहा है। नववधू सन्तानोत्पादन कर, पतिगृहवासियों को प्रसन्न कर, उनके मनों पर विजय पा लेती है, क्योंकि यह वंशपरम्परा को जारी रखने में सहायिका हुई है।]