अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 10/ मन्त्र 9
सूक्त - अथर्वा
देवता - ऋतवः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - रायस्पोषप्राप्ति सूक्त
ऋ॒तून्य॑ज ऋतु॒पती॑नार्त॒वानु॒त हा॑य॒नान्। समाः॑ संवत्स॒रान्मासा॑न्भू॒तस्य॒ पत॑ये यजे ॥
स्वर सहित पद पाठऋ॒तून् । य॒जे॒ । ऋ॒तु॒ऽपती॑न् । आ॒र्त॒वान् । उ॒त । हा॒य॒नान् । समा॑: । स॒म्ऽव॒त्स॒रान् । मासा॑न् । भू॒तस्य॑ । पत॑ये । य॒जे॒ ॥१०.९॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋतून्यज ऋतुपतीनार्तवानुत हायनान्। समाः संवत्सरान्मासान्भूतस्य पतये यजे ॥
स्वर रहित पद पाठऋतून् । यजे । ऋतुऽपतीन् । आर्तवान् । उत । हायनान् । समा: । सम्ऽवत्सरान् । मासान् । भूतस्य । पतये । यजे ॥१०.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 10; मन्त्र » 9
भाषार्थ -
(ऋतून् यजे) मैं ऋतूयज्ञ करता हूँ, (ऋतुपतीन्) ऋतुओं के पतियों को, (आर्तवान्) ऋतुओं के समूहों या अवयवों को, (उत) तथा (हायनान्=सायनान) अयनोंवाले आयनवर्षों को, (समाः) चान्द्रवर्षों को, (संवत्सरान्) सौरवर्षों को, (मासान्) मासों को [लक्ष्य कर] यज्ञ करता हूँ। (भूतस्य पतये) और भौतिक जगत् के पति अर्थात् परमेश्वर का (यजे) मैं यजन करता हूँ।
टिप्पणी -
[संवत्सर की पहली रात्री से प्रारम्भ कर प्रत्येक ऋतु तथा मास में यज्ञ करने का विधान हुआ है। ये यज्ञ भौतिक जगत् के पति परमेश्वर की प्रसन्नता के लिये हैं। दो अयनों के मेल से हायन होता है। दो अयन हैं उत्तरायण तथा दक्षिणायन। हायन है सायन, यथा सिन्धु है हिन्दु। सकार को हकार प्रायः हो जाता है। ऋतुपति हैं अग्नि, वायु, विद्युत्, मेघ, आदित्य आदि।]