अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 10/ मन्त्र 7
सूक्त - अथर्वा
देवता - रात्रिः, यज्ञः
छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदा विराड्गर्भातिजगती
सूक्तम् - रायस्पोषप्राप्ति सूक्त
आ मा॑ पु॒ष्टे च॒ पोषे॑ च॒ रात्रि॑ दे॒वानां॑ सुम॒तौ स्या॑म। पू॒र्णा द॑र्वे॒ परा॑ पत॒ सुपू॑र्णा॒ पुन॒रा प॑त। सर्वा॑न्य॒ज्ञान्त्सं॑भुञ्ज॒तीष॒मूर्जं॑ न॒ आ भ॑र ॥
स्वर सहित पद पाठआ । मा॒ । पु॒ष्टे । च॒ । पोषे । च॒ । रात्रि॑ । दे॒वाना॑म् । सु॒ऽम॒तौ । स्या॒म॒ । पू॒र्णा । द॒र्वे॒ । परा॑ । प॒त॒ । सुऽपू॑र्णा । पुन॑: । आ । प॒त॒ ।सर्वा॑न् । य॒ज्ञान् । स॒म्ऽभु॒ञ्ज॒ती । इष॑म् । ऊर्ज॑म् । न॒: । आ । भ॒र॒ ॥१०.७॥
स्वर रहित मन्त्र
आ मा पुष्टे च पोषे च रात्रि देवानां सुमतौ स्याम। पूर्णा दर्वे परा पत सुपूर्णा पुनरा पत। सर्वान्यज्ञान्त्संभुञ्जतीषमूर्जं न आ भर ॥
स्वर रहित पद पाठआ । मा । पुष्टे । च । पोषे । च । रात्रि । देवानाम् । सुऽमतौ । स्याम । पूर्णा । दर्वे । परा । पत । सुऽपूर्णा । पुन: । आ । पत ।सर्वान् । यज्ञान् । सम्ऽभुञ्जती । इषम् । ऊर्जम् । न: । आ । भर ॥१०.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 10; मन्त्र » 7
भाषार्थ -
(रात्रि) हे रात्रि ! (मा) मुझे (पुष्टे च पोषे च) पुष्ट पदार्थों में, और [उन द्वारा प्राप्त] पुष्टि में (आ) आस्थापित कर, ताकि (देवानाम्) दिव्य व्यक्तियों की (सुमतौ) सुमति में (स्याम) हम हों। (दर्वे) हे दारु द्वारा निर्मित कड़छी! (परापत) अग्नि की ओर तु जा गिर, तदनन्तर (सुपूर्णा) और अभिमत फलों से पूर्ण हुई, भरी हुई (पुनः) फिर (आ पत) हमारी ओर आ गिर। (सर्वान यज्ञान्) सब यज्ञों को (संभुञ्जती) सम्यक सफल करती हुई (नः) हमारे लिये (इषम्) अभीष्ट अन्न, (च) और (ऊर्जम्) बल और प्राण (आ भर=आ हर) ला।
टिप्पणी -
[रात्री है संवत्सर की प्रथमा रात्री, जिस रात्री से संवत्सर का प्रारम्भ होता है। उस रात्री में सांवत्सरिक यज्ञ करना चाहिए (मन्त्र ५)। इस यज्ञ में यज्ञकर्त्ताओं को दिव्य व्यक्तियों की सुमति के अनुसार जीवनचर्या करनी चाहिए। घृत तथा हवियों को यज्ञाग्नि में डालने के लिए दारुनिर्मित कड़छी चाहिए, ताकि आहुतियाँ प्रभूतमात्रा में दी जा सकें, कड़छी को पूर्ण भरकर आहुतियां दी जा सकें, उसका फल भी प्रभुत होगा। सब यज्ञों के पूर्णतया परिपालित होने पर हमें अभीष्ट अन्न और उस द्वारा बल और प्राणशक्ति प्राप्त होगी। ऊर्ज बलप्राणनयोः (चुरादिः)। भुञ्जती = भुज पालने (रुधादिः), भोजन से पालन होता ही है। यज्ञों और यज्ञियाग्नियों को समुचित भोजन मिलने पर ये भी परिपालित होंगे।]