अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 17/ मन्त्र 7
शुना॑सीरे॒ह स्म॑ मे जुषेथाम्। यद्दि॒वि च॒क्रथुः॒ पय॒स्तेनेमामुप॑ सिञ्चतम् ॥
स्वर सहित पद पाठशुना॑सीरा । इ॒ह । स्म॒ । मे॒ । जु॒षे॒था॒म् । यत् । दि॒वि । च॒क्रथु॑: । पय॑: । तेन॑ । इ॒माम् । उप॑ । सि॒ञ्च॒त॒म् ॥१७.७॥
स्वर रहित मन्त्र
शुनासीरेह स्म मे जुषेथाम्। यद्दिवि चक्रथुः पयस्तेनेमामुप सिञ्चतम् ॥
स्वर रहित पद पाठशुनासीरा । इह । स्म । मे । जुषेथाम् । यत् । दिवि । चक्रथु: । पय: । तेन । इमाम् । उप । सिञ्चतम् ॥१७.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 17; मन्त्र » 7
भाषार्थ -
(इह स्म) हम इस कृष्ट क्षेत्र में विद्यमान हैं। (मे) मुझ प्रत्येक द्वारा दी गई आहुति का (जुषेथाम्) सेवन करो (शुनासीरा) हे वायु और आदित्य तुम दोनों। (दिवि) द्योतनशील अन्तरिक्ष में (यत्) जो (पयः) जल (चक्रथुः) तुम दोनों ने पैदा किया है, (तेन) उस द्वारा (इमाम्) इस कृष्टभूमि को (उप सिञ्चतम्) सींचो।
टिप्पणी -
[ग्रामनिवासी कृष्टभूमि में उपस्थित होकर वर्षा निमित्त आहुतियाँ देते हैं और प्रत्येक ग्रामवासी अपने अपने हाथ से आहुतियाँ देता है। यह वर्षयज्ञ है।]