अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 17/ मन्त्र 8
सीते॒ वन्दा॑महे त्वा॒र्वाची॑ सुभगे भव। यथा॑ नः सु॒मना॒ असो॒ यथा॑ नः सुफ॒ला भुवः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठसीते॑ । वन्दा॑महे । त्वा॒ । अर्वाची॑ । सु॒ऽभ॒गे॒ । भ॒व॒ । यथा॑ । न॒: । सु॒ऽमना॑: । अस॑: । यथा॑ । न॒: । सु॒ऽफ॒ला । भुव॑: ॥१७.८॥
स्वर रहित मन्त्र
सीते वन्दामहे त्वार्वाची सुभगे भव। यथा नः सुमना असो यथा नः सुफला भुवः ॥
स्वर रहित पद पाठसीते । वन्दामहे । त्वा । अर्वाची । सुऽभगे । भव । यथा । न: । सुऽमना: । अस: । यथा । न: । सुऽफला । भुव: ॥१७.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 17; मन्त्र » 8
भाषार्थ -
(सीते) हल द्वारा कृष्ट हे भूभाग! (त्वा वन्दामहे) तेरी हम स्तुति करते हैं, तेरे गुणों का कथन करते हैं, (सुभगे) हे उत्तम ऐश्वर्य देनेवाली भूमि! (अर्वाची भव) हमारे अभिमुखी तू हो। (यथा) जिस प्रकार कि (न:) हमारे (सुमनाः) मनों को प्रसन्न करनेवाली (असः) तू हो, (यथा) जिस प्रकार कि (न:) हमें (सुफला) उत्तम फल देनेवाली (भुवः) तू हो।
टिप्पणी -
[वन्दामहे=वदि अभिवादनस्तुत्योः (भ्वादिः), स्तुति अर्थ अभिप्रेत है। सीता अन्नोत्पादन द्वारा सब प्राणियों का पालन करती है—यह उसकी स्तुति है, गुणों का कथन है। अर्वाची का अभिप्राय है हमारे प्रति फलोन्मुखी होना। उत्तम-ऐश्वर्य है अन्न और तदद्वारा प्राप्त अन्य पदार्थ। उत्तम फल है कृषिजन्य अन्न।]