अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 29/ मन्त्र 1
सूक्त - उद्दालकः
देवता - शितिपाद् अविः
छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - अवि सूक्त
यद्राजा॑नो वि॒भज॑न्त इष्टापू॒र्तस्य॑ षोड॒शं य॒मस्या॒मी स॑भा॒सदः॑। अवि॒स्तस्मा॒त्प्र मु॑ञ्चति द॒त्तः शि॑ति॒पात्स्व॒धा ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । राजा॑न: । वि॒ऽभज॑न्ते । इ॒ष्टा॒पू॒र्तस्य॑ । षो॒ड॒शम् । य॒मस्य॑ । अ॒मी इति॑ । स॒भा॒ऽसद॑: । अवि॑: । तस्मा॑त् । प्र । मु॒ञ्च॒ति॒ । द॒त्त: । शि॒ति॒ऽपात् । स्व॒धा ॥२९.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्राजानो विभजन्त इष्टापूर्तस्य षोडशं यमस्यामी सभासदः। अविस्तस्मात्प्र मुञ्चति दत्तः शितिपात्स्वधा ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । राजान: । विऽभजन्ते । इष्टापूर्तस्य । षोडशम् । यमस्य । अमी इति । सभाऽसद: । अवि: । तस्मात् । प्र । मुञ्चति । दत्त: । शितिऽपात् । स्वधा ॥२९.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 29; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(इष्टापूर्तस्य षोडशम्) यज्ञों और सामाजिक उपकारों के (यत्) जिस १६वें भाग को भी (राजानः) राजा लोग (विभजन्ते) राष्ट्र-कर रूप में विभक्त कर लेते हैं, (अमी) तो ये राजा लोग (यमस्य) नियन्ता मृत्यु के (सभासदः) सभासद् होते हैं। (तस्मात्) उस पाप से, (अविः दत्तः) राष्ट्र के प्रति समर्पित किया गया प्रत्येक [राजा] का आत्मा, जोकि शरीर-रक्षक है, वह (प्रमुञ्चति) दण्ड से प्रमुक्त कर देता है, जबकि वह राजा (शितिपात्) शुभ्रगतिक अर्थात् शुभ्राचारी हुआ (स्वधा१) अपने राष्ट्र का धारण-पोषण करनेवाला हो जाता है।
टिप्पणी -
[यज्ञ और सामाजिक उपकार के काम राष्ट्र की रक्षा करते हैं। उन पर राष्ट्र कर लगाना वैदिक प्रथा के विरुद्ध है। जो राजा इन रक्षा के कामों पर राष्ट्र कर लगाते हैं, वे पापकर्म करते हैं। परन्तु जो-जो राजा निज आत्मा को राष्ट्र रक्षा के निमित्त सुपुर्द कर देता है, वह राष्ट्र का अवि अर्थात् रक्षक होकर शुद्धाचारी हो जाता है, वह राष्ट्रदण्ड से प्रमुक्त कर दिया जाता है। वेद में वेदवक्ता—ब्रह्मज्ञ पर शुल्क लगाना निषिद्ध है (अथर्व० ५।१९।३), क्योंकि इसका धन सोम आदि यज्ञों के निमित्त होता है, सोम आदि यज्ञ ही इसके दायाद अर्थात् सम्पत्ति के खानेवाले, उत्तराधिकारी होते हैं (अथर्व० ५।१८।६)। प्रजोपकारी कर्मों पर तथा यज्ञ कार्य पर व्यय किये गये धन पर "राज्य-कर" लगाना पापकर्म है। स्वधा [छान्दस प्रयोग]=स्व+धाः; धा=धारणपोषणयोः (जुहोत्यादिः)। शितिपात् या शितिपाद् की विशेष व्याख्या के लिए देखो (मन्त्र २) की व्याख्या। अथवा स्वधा अन्ननाम है, (निघं० २।७) अर्थात् इष्टापूर्त के १६वें विभाग को राज्यकर में विभक्त करनेवाला राजा यम अर्थात् मृत्यु का अन्नरूप हो जाता है, प्रजा द्वारा मार दिया जाता है।] [१. इष्टापूर्त पर राज्यकर लगाना, तथा राजा के स्वोपभोग के लिए 'राजकर' लगाना वेद-निपिद्ध है। केवल राष्ट्रोन्नति के लिए "राष्ट्रकर" या साम्राज्य-कर लगाना वेदानुमोदित है।]