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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 29

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 29/ मन्त्र 4
    सूक्त - उद्दालकः देवता - शितिपाद् अविः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अवि सूक्त

    पञ्चा॑पूपं शिति॒पाद॒मविं॑ लो॒केन॒ संमि॑तम्। प्र॑दा॒तोप॑ जीवति पितॄ॒णां लो॒केऽक्षि॑तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पञ्च॑ऽअपूपम् । शि॒ति॒ऽपाद॑म् । अवि॑म् । लो॒केन॑ । सम्ऽमि॑तम् । प्र॒ऽदा॒ता । उप॑ । जी॒व॒ति॒ । पि॒तृ॒णाम् । लो॒के । अक्षि॑तम् ॥२९.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पञ्चापूपं शितिपादमविं लोकेन संमितम्। प्रदातोप जीवति पितॄणां लोकेऽक्षितम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पञ्चऽअपूपम् । शितिऽपादम् । अविम् । लोकेन । सम्ऽमितम् । प्रऽदाता । उप । जीवति । पितृणाम् । लोके । अक्षितम् ॥२९.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 29; मन्त्र » 4

    भाषार्थ -
    (पञ्चापूपम्) पाँच इन्द्रियों की अपवित्रता से निज को सुरक्षित करनेवाले, (शितिपादम्) निर्मल शारीरिक पाद आदि अवयवोंवाले, (लोकेन संमितम्) प्रजावर्ग द्वारा सम्यक् प्रकार से माप लिये गये, जाँच लिये गये (अविम्) रक्षा करनेवाले व्यक्ति को (प्रदाता) प्रदान करनेवाला (उप जीवति) जीवित करता है, (पितॄणां लोके) पितरों की लोकसभा में (अक्षितम्) न क्षीणकाल तक।

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