अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 29/ मन्त्र 8
भूमि॑ष्ट्वा॒ प्रति॑ गृह्णात्व॒न्तरि॑क्षमि॒दं म॒हत्। माहं प्रा॒णेन॒ मात्मना॒ मा प्र॒जया॑ प्रति॒गृह्य॒ वि रा॑धिषि ॥
स्वर सहित पद पाठभूमि॑: । त्वा॒ । प्रति॑ । गृ॒ह्णा॒तु॒ । अ॒न्तरि॑क्षम् । इ॒दम् । म॒हत् । मा । अ॒हम् । प्रा॒णेन॑ । मा । आ॒त्मना॑ । मा । प्र॒ऽजया॑ । प्र॒ति॒ऽगृह्य॑ । वि । रा॒धि॒षि॒ ॥२९.८॥
स्वर रहित मन्त्र
भूमिष्ट्वा प्रति गृह्णात्वन्तरिक्षमिदं महत्। माहं प्राणेन मात्मना मा प्रजया प्रतिगृह्य वि राधिषि ॥
स्वर रहित पद पाठभूमि: । त्वा । प्रति । गृह्णातु । अन्तरिक्षम् । इदम् । महत् । मा । अहम् । प्राणेन । मा । आत्मना । मा । प्रऽजया । प्रतिऽगृह्य । वि । राधिषि ॥२९.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 29; मन्त्र » 8
भाषार्थ -
[हे राजपद!] (त्वा) तुझे (भूमिः) राष्ट्रभूमि (प्रतिगृह्णातु) स्वीकार करे, तथा (इदम्) यह (महत् अन्तरिक्षम्) राष्ट्र का महा अन्तरिक्ष स्वीकार करे। (प्रतिगृह्य) तुझे हे राजपद! स्वीकार करके (अहम्) मैं राजा (मा प्राणेन) न प्राण से, (मा आत्मना) न शरीररथ जीवात्मा से, (मा प्रजया) न प्रजा से (वि राधिषि) कहीं वर्जित हो जाऊँ।
टिप्पणी -
[विराधिषि=वि+राध (संसिद्धौ, स्वादिः), संसिद्धि से विमुक्त होना। मा विराधिषि=मैं कहीं संसिद्धि से विमुक्त हो जाऊँ। अभिप्राय यह कि राजपद का ग्रहण करना विपत्ति से रहित नहीं। विरोधी प्रजा के उत्थान हो जाने से राजा स्वयम् और उसका परिवार विपत्तिग्रस्त हो सकता है। अत: मानों राजपद मैंने स्वीकार नहीं किया, अपितु राष्ट्रभूमि ने और राष्ट्र के अन्तरिक्ष ने स्वीकार किया है। मैं तो इनका प्रतिनिधि होकर राजपद को स्वीकार कर रहा हूँ। प्रजा जब भी चाहे मैं प्रतिनिधित्व का परित्याग कर दूंगा। जितने भूखण्ड पर जिसका राज्य होता है, उतने भूखण्ड के ऊपर का महत् अन्तरिक्ष भी उसीका होता है, यह दर्शाने के लिए भूमि के साथ अन्तरिक्ष का भी कथन हुआ है। अन्तरिक्ष वहीं तक होता है, जितनी ऊँचाई तक कि वायुमण्डल होता है, यतः अन्तरिक्ष का देवता वायु है।]