अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 9/ मन्त्र 6
सूक्त - वामदेवः
देवता - द्यावापृथिव्यौ, विश्वे देवाः
छन्दः - भुरिगनुष्टुप्
सूक्तम् - दुःखनाशन सूक्त
एक॑शतं॒ विष्क॑न्धानि॒ विष्ठि॑ता पृथि॒वीमनु॑। तेषां॒ त्वामग्र॒ उज्ज॑हरुर्म॒णिं वि॑ष्कन्ध॒दूष॑णम् ॥
स्वर सहित पद पाठएक॑ऽशतम् । विऽस्क॑न्धानि । विऽस्थि॑ता । पृ॒थि॒वीम् । अनु॑ । तेषा॑म् । त्वाम् । अग्रे॑ । उत् । ज॒ह॒रु॒: । म॒णिम् । वि॒स्क॒न्ध॒ऽदूष॑णम् ॥९.६॥
स्वर रहित मन्त्र
एकशतं विष्कन्धानि विष्ठिता पृथिवीमनु। तेषां त्वामग्र उज्जहरुर्मणिं विष्कन्धदूषणम् ॥
स्वर रहित पद पाठएकऽशतम् । विऽस्कन्धानि । विऽस्थिता । पृथिवीम् । अनु । तेषाम् । त्वाम् । अग्रे । उत् । जहरु: । मणिम् । विस्कन्धऽदूषणम् ॥९.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 9; मन्त्र » 6
भाषार्थ -
(एकशतम्) एक सौ एक (विष्कन्धानि) शोषण (पृथिवीमनु) पृथिवी में (विष्ठिता) विविधरूप में स्थित हैं। (तेषाम्) उनके निवारण के लिए, (मणिम्१) तुझ पुरुष-रत्न को [देवों ने] (अग्रे) पहिले (उज्जहरुः) चुना है, (विष्कन्धदूषणम्) शोषकों के विनाशकरूप में।
टिप्पणी -
[१. मणि = रत्न। (आप्टे)। रत्न="जातौ जातौ यदुत्कृष्टं तद्रत्नममिधीयते" (मल्लिनाथ)। मनुष्यों में उत्कृष्ट मनुष्य को भी मणि और रत्न कह सकते हैं, यथा चन्द्रमणि आदि।] [विष्ठिता=विष्ठितानि। विष्कन्ध हैं रोग, जोकि शरीर और शारीरिक शक्तियों का शोषण कर देते हैं, "स्कन्दिर् गतिशोषणयोः" (भ्वादिः)। ये रोग १०१ हैं। मनुष्य का जीवन है शतायुः और एक वर्ष वह मातृयोनि में निवास करता है। जीवन वर्षों की संख्यानुसार शोषक रोगों को १०१ कहा है। उज्जहरु:=उत्+हृञ् हरणे (भ्वादिः), ऊपर की ओर हरण करना, ऊंचा करना, चुनना।]