अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 16/ मन्त्र 7
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - वरुणः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सत्यानृतसमीक्षक सूक्त
श॒तेन॒ पाशै॑र॒भि धे॑हि वरुणैनं॒ मा ते॑ मोच्यनृत॒वाङ्नृ॑चक्षः। आस्तां॑ जा॒ल्म उ॒दरं॑ श्रंसयि॒त्वा कोश॑ इवाब॒न्धः प॑रिकृ॒त्यमा॑नः ॥
स्वर सहित पद पाठश॒तेन॑ । पाशै॑: । अ॒भि । धे॒हि॒ । व॒रु॒ण॒ । ए॒न॒म् । मा । ते॒ । मो॒चि॒ । अ॒नृ॒त॒ऽवाक् । नृ॒ऽच॒क्ष॒: । आस्ता॑म् । जा॒ल्म: । उ॒दर॑म् । श्रं॒श॒यि॒त्वा । कोश॑:ऽइव । अ॒ब॒न्ध: । प॒रि॒ऽकृ॒त्यमा॑न: ॥१६.७॥
स्वर रहित मन्त्र
शतेन पाशैरभि धेहि वरुणैनं मा ते मोच्यनृतवाङ्नृचक्षः। आस्तां जाल्म उदरं श्रंसयित्वा कोश इवाबन्धः परिकृत्यमानः ॥
स्वर रहित पद पाठशतेन । पाशै: । अभि । धेहि । वरुण । एनम् । मा । ते । मोचि । अनृतऽवाक् । नृऽचक्ष: । आस्ताम् । जाल्म: । उदरम् । श्रंशयित्वा । कोश:ऽइव । अबन्ध: । परिऽकृत्यमान: ॥१६.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 16; मन्त्र » 7
भाषार्थ -
(वरुण) हे वरुण ! (एनम्) इसे (शतेन पार्शः) सौ फंदों द्वारा (अभि धेहि) तू बांध, (नृचक्ष:) हे नर-नारियों पर दृष्टि रखनेवाले ! (अनृतवाक्) असत्यवक्ता (ते) तेरे फंदों से (मा मोचि) न छुटा रहे। (जाल्मः) असत्य बोलकर जाल बिछानेवाला (उदरम्) निज पेट को (श्रंसयित्वा= स्रंसयित्वा) अयस्रस्त करके (आस्ताम्) रहे, (इव) जैसेकि (अबन्धः) बन्धरहित (कोशः) पुष्पकोश (परिकृत्यमानः) सब ओर से कटा हुआ होकर रहता है।
टिप्पणी -
[वरुण है “अपामधिपतिः” (अथर्व० ५।२४।४), अतः मन्त्र में उदर का रोग अभिप्रेत है, जलोदर [Dropsy]। इससे पेट फूल जाता और नीचे की ओर अवलम्बित हो जाता है, इसे अवस्रस्त द्वारा निर्दिष्ट किया है। जलोदर रोग मुख्य है, इसके अवान्तर दुष्परिणामों को “शतेन पाशै:” द्वारा निर्दिष्ट किया है। पुष्प के मूलभाग अर्थात् जड़ के चारों ओर एक गोलाकृतिक बन्ध१ होता है, जिसे कि ‘वृन्त’ कहते हैं। पुष्प के आभ्यन्तर की ओर निचले हिस्से में गोलाकृतिक एक अल्पगर्त होता है, इसे ‘कोश’ कहा है।] [१. बन्ध के कट जाने से पुष्प की पंखड़ियां कटकर बिखर जाती हैं, अलग-अलग होकर गिर जाती है। जाल्म:= जालिम?]