अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 27/ मन्त्र 1
म॒रुतां॑ मन्वे॒ अधि॑ मे ब्रुवन्तु॒ प्रेमं वाजं॒ वाज॑साते अवन्तु। आ॒शूनि॑व सु॒यमा॑नह्व ऊ॒तये॒ ते नो॑ मुञ्च॒न्त्वंह॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठम॒रुता॑म् । म॒न्वे॒ । अधि॑ । मे॒ । ब्रु॒व॒न्तु॒ । प्र । इ॒मम् । वाज॑म् । वाज॑ऽसाते । अ॒व॒न्तु॒ । आ॒शूनऽइ॑व । सु॒ऽयमा॑न् ।अ॒ह्वे॒ । ऊ॒तये॑ । ते । न॒: । मु॒ञ्च॒न्तु॒ । अंह॑स: ॥२७.१॥
स्वर रहित मन्त्र
मरुतां मन्वे अधि मे ब्रुवन्तु प्रेमं वाजं वाजसाते अवन्तु। आशूनिव सुयमानह्व ऊतये ते नो मुञ्चन्त्वंहसः ॥
स्वर रहित पद पाठमरुताम् । मन्वे । अधि । मे । ब्रुवन्तु । प्र । इमम् । वाजम् । वाजऽसाते । अवन्तु । आशूनऽइव । सुऽयमान् ।अह्वे । ऊतये । ते । न: । मुञ्चन्तु । अंहस: ॥२७.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 27; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(मरुताम्) मानसूनवायुओं का (मन्वे) मैं मनन करता हूँ, या उनके माहात्म्य को मैं जानता हूँ, (मे) मुझे (अधि ब्रुवन्तु) वे निज सत्ता या विद्यमानता का कथन करें, उसे सूचित करें, (इमम्) इस (वाजम्) अन्न को (वाजसाते) अन्न प्रदान के काल अर्थात् वर्षतुं में (प्रावन्तु) वे सुरक्षित करें, या अन्नदान करें; (ऊतये) निज रक्षार्थ (आशून, इव, सुयमान्) शीघ्रगामी अश्वों की तरह सुयम्य मानसून वायुओं का (अह्वे) मैं आह्वान करता हूं, या मैंने आहान किया है, (ते) वे तुम दोनों (न:) हमें (अंहसः) पापजन्य कष्ट से (मुञ्चतम्) छुड़ाएँ।
टिप्पणी -
[वाजः अन्ननाम (निघं० २।७)। अवन्तु= अव रक्षा, तथा दान (भ्वादिः)। अधिब्रुवन्तु= मानसून वायुओं के तेज-प्रवाहों, तथा मेघगर्जनों को अधिब्रुवन्तु कहा है। ये वर्षा ऋतु के सूचक हैं। मन्त्रवर्णन द्वारा यह भी स्पष्ट है कि जैसे अश्वों की गतियों को यथेष्ट नियन्त्रित किया जा सकता है वैसे मानसून वायुओं की गतियों को भी यथेष्ट नियन्त्रित किया जो सकता है। पाप से मोचन का अभिप्राय है अत्यधिक या कम वर्षा द्वारा= अन्नक्षतिरूप पाप फल से मोचन। अति तथा कम वर्षा प्रजा के पापों के ही परिणाम हैं।]