अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 27/ मन्त्र 6
यदीदि॒दं म॑रुतो॒ मारु॑तेन॒ यदि॑ देवा॒ दैव्ये॑ने॒दृगार॑। यू॒यमी॑शिध्वे वसव॒स्तस्य॒ निष्कृ॑ते॒स्ते नो॑ मुञ्च॒न्त्वंह॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठयदि॑ । इत् । इ॒दम् । म॒रु॒त॒: । मारु॑तेन । यदि॑ । दे॒वा॒: । दैव्ये॑न । ई॒दृक् । आर॑ । यू॒यम् । ई॒शि॒ध्वे॒ । व॒स॒व॒: । तस्य॑ । निऽकृ॑ते : । ते । न॒: । मु॒ञ्च॒न्तु॒ । अंह॑स: ॥२७.६॥
स्वर रहित मन्त्र
यदीदिदं मरुतो मारुतेन यदि देवा दैव्येनेदृगार। यूयमीशिध्वे वसवस्तस्य निष्कृतेस्ते नो मुञ्चन्त्वंहसः ॥
स्वर रहित पद पाठयदि । इत् । इदम् । मरुत: । मारुतेन । यदि । देवा: । दैव्येन । ईदृक् । आर । यूयम् । ईशिध्वे । वसव: । तस्य । निऽकृते : । ते । न: । मुञ्चन्तु । अंहस: ॥२७.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 27; मन्त्र » 6
भाषार्थ -
(मरुतः) हे मानसून वायुओं! (यदि) यदि (इदम्) यह अनुभूयमान दुःख (मारुतेन, इत्) मरुतों-जन्य ही है, (देवा:) हे अन्य देवो! (यदि) यदि (ईदृक) इस प्रकार का दुःख (दैव्येन) आप देवों द्वारा (आर) प्राप्त हुआ है, तो (यूयम्) हे मरुतो और देवों! तुम ही (वसवः) हे बसाने वालो! (तस्य) उस दुःख के (निस्कृते:) परिहार के (ईशिध्वे) अधीश्वर हो। (ते) वे तुम दोनों (न:) हमें (अंहसः) पापजन्य कष्ट से (मुञ्चतम्) छुड़ाएँ।
टिप्पणी -
[आर= प्राप, ऋ गतौ लिट् (सायण)। मरुतों द्वारा दुःख प्राप्त होता है अतिवर्षा द्वारा तथा वर्षा के अभाव द्वारा। अन्य देव हैं वायु, विद्युत्, सूर्य आदि। प्रचण्ड वायु, मलिन वायु, विद्युत्प्रपात, सूर्य की अति गर्मी, भूचाल आदि अन्य देवों के प्रकोप के परिणाम हैं। इन्हीं को विज्ञान द्वारा व्यवस्थित करने से एतज्जन्य दुःखों से छुटकारा प्राप्त होता है।]