अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 29/ मन्त्र 1
सूक्त - मृगारः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
म॒न्वे वां॑ मित्रावरुणावृतावृधौ॒ सचे॑तसौ॒ द्रुह्व॑णो॒ यौ नु॒देथे॑। प्र स॒त्यावा॑न॒मव॑थो॒ भरे॑षु॒ तौ नो॑ मुञ्चत॒मंह॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठम॒न्वे । वा॒म् । मि॒त्रा॒व॒रु॒णौ॒ । ऋ॒त॒ऽवृ॒धौ॒ । सऽचे॑तसौ । द्रुह्व॑ण: । यौ । नु॒देथे॒ इति॑ । प्र । स॒त्यऽवा॑नम् । अव॑थ: । भरे॑षु । तौ । न॒: । मु॒ञ्च॒त॒म् । अंह॑स: ॥२९.१॥
स्वर रहित मन्त्र
मन्वे वां मित्रावरुणावृतावृधौ सचेतसौ द्रुह्वणो यौ नुदेथे। प्र सत्यावानमवथो भरेषु तौ नो मुञ्चतमंहसः ॥
स्वर रहित पद पाठमन्वे । वाम् । मित्रावरुणौ । ऋतऽवृधौ । सऽचेतसौ । द्रुह्वण: । यौ । नुदेथे इति । प्र । सत्यऽवानम् । अवथ: । भरेषु । तौ । न: । मुञ्चतम् । अंहस: ॥२९.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 29; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(ऋतावृधौ) सत्य के वर्धक, (सचेतसौ) सचेत अर्थात् सावधान रहनेवाले, अथवा एक चित्तवाले (मित्रावरुणौ) हे स्नेही-तथा-शत्रुनिवारक! (वाम्) तुम दोनों को (मन्वे) मैं राजा जानता हूँ, (यौ) जो तुम दो कि (द्रुह्वणः) राष्ट्र-द्रोही को (नुदेथे) राष्ट्र से धकेल देते हो; तथा (सत्यावानम्) सत्याचरणवाले की (प्र अवथ:) प्रकर्ष रूप में रक्षा करते हो। (भरेषु) युद्धों में अथवा भरण-पोषण में, (तौ) वे तुम दोनों (न:) हम सबको (अंहसः) पाप से (मुञ्चतम्) मुक्त करो, या छुड़ाओ।
टिप्पणी -
[मित्रावरुणौ=राष्ट्र के साथ स्नेह करनेवाला प्रधानमन्त्री "ञिमिदा स्नेहने (भ्वादिः, दिवादिः), मिदि स्नेहने (चुरादिः); तथा शत्रुनिवारक सेनाध्यक्ष।" वरुण:= निवारक। राजा इन दोनों को कहता है कि तुम दोनों को मैं जानता हूँ कि तुम दोनों प्रजाजनों के साथ स्नेह करनेवाले हो, और शत्रु के निवारण में कुशल हो। राष्ट्रद्रोही को राष्ट्र से निकाल देना चाहिए, और सत्याचारी की सर्वदा रक्षा करनी चाहिए। शासन का मुख्य उद्देश्य है राष्ट्रिय प्रजनन को पापों से मुक्त करना। मन्वे=मनु अवबोधने (तनादिः)। सत्यावानम्= सत्यवन्तम् (सायण)।]