अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 29/ मन्त्र 6
सूक्त - मृगारः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
यौ मेधा॑तिथि॒मव॑थो॒ यौ त्रि॒शोकं॒ मित्रा॑वरुणावु॒शनां॑ का॒व्यं यौ। यौ गोत॑म॒मव॑थः॒ प्रोत मुद्ग॑लं॒ तौ नो॑ मुञ्चत॒मंह॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठयौ । मेध॑ऽअतिथिम् । अव॑थ: । यौ । त्रि॒ऽशोक॑म् । मित्रा॑वरुणै । उ॒शना॑म् । का॒व्यम् । यौ । यौ । गोत॑मम् । अव॑थ: । प्र । उ॒त । मुद्ग॑लम् । तौ न॒: । मु॒ञ्च॒त॒म् । अंह॑स: ॥२९.६॥
स्वर रहित मन्त्र
यौ मेधातिथिमवथो यौ त्रिशोकं मित्रावरुणावुशनां काव्यं यौ। यौ गोतममवथः प्रोत मुद्गलं तौ नो मुञ्चतमंहसः ॥
स्वर रहित पद पाठयौ । मेधऽअतिथिम् । अवथ: । यौ । त्रिऽशोकम् । मित्रावरुणै । उशनाम् । काव्यम् । यौ । यौ । गोतमम् । अवथ: । प्र । उत । मुद्गलम् । तौ न: । मुञ्चतम् । अंहस: ॥२९.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 29; मन्त्र » 6
भाषार्थ -
(मित्रावरुणी) हे मित्र! और हे वरुण ! (यौ) जो तुम दो (मेधातिथिम्) मेधावी-अतिथियोंवाले की, (यौ) जो तुम दो (त्रिशोकम्) त्रिविध शोकवाले की, (उशनाम्) कान्तिमती महिला की, (यौ) जो तुम दो (काव्यम्) वेदकाव्य के विद्वान्१ की (अवथ:) रक्षा करते हो, (यौ) जो तुम दो (गोतमम्) पृथिवी में सर्वश्रेष्ठ की, (उत) तथा (मुद्गलम्) सांसारिक मोदप्रमाद को खा जाने वाले, नष्ट कर देनेवाले की (प्र अवथ:) प्रकर्षरूप में रक्षा करते हो (तौ) वे दुम दो (न:) हम सबको (अंहस:) पाप से (मुञ्चतम्) मुक्त करो, छुड़ाओं।
टिप्पणी -
[त्रिशोकम्= सांसारिक जीवन में दुःख त्रिविध हैं-आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक; जो इन त्रिविध दुःखो से दु:खित हुआ, शोकग्रस्त होकर, सांसारिक जीवन से उपगत हो गया है यह है 'त्रिशोक'। उशनाम्= वश कान्तौ (अदादिः), कान्तिमती कमनीया कन्या। काव्यम्= वेदकाव्य का स्वाध्यायी विद्वान;१ 'अर्शआदिभ्योऽच्' द्वारा 'अच्' (अष्टा० ५।२।१२७)। गोतमम्= गौः पृथिवीनाम (निघं० १।१)+तमप्। मुद्गलम्= सांसारिक मोदप्रमोदों को विवेक=ज्ञानपूर्वक त्याग देनेवाला। उशनाम्= राष्ट्र की कन्याओं को भी रक्षा करना मित्र और वरुण का कर्तव्य है, यह राष्ट्र धर्म है।] [१. विद्वान् अर्थात् द्रष्टा। यथा "देवस्य पश्य काव्यं न ममार न जीर्यति" (अथर्व १०।८।३२)। वेद में काव्य के द्रष्टा को 'काव्य' कहा है। इस द्रष्टा को 'पश्य' द्वारा निर्दिष्ट किया है। यह द्रष्टा है ऋषि; वेद काव्य है, सम्भवतः अथर्ववेद। इसकी द्रष्टा ऋषि होकर न मरता है, न बुढ़ा होता है। मुक्त हो जाने से पुनर्जन्म नहीं प्राप्त होता। जब शरीर ही न मिला तो उसका मरना और जीर्ण होना सम्भव ही नहीं हो सकता।]