अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 29/ मन्त्र 2
सूक्त - मृगारः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
सचे॑तसौ॒ द्रुह्व॑णो॒ यौ नु॒देथे॒ प्र स॒त्यावा॑न॒मव॑थो॒ भरे॑षु। यौ गच्छ॑थो नृ॒चक्ष॑सौ ब॒भ्रुणा॑ सु॒तं तौ नो॑ मुञ्चत॒मंह॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठसऽचे॑तसौ । द्रुह्व॑ण: । यौ । नु॒देथे॒ इति॑ । प्र । स॒त्यऽवा॑नम् । अव॑थ: । भरे॑षु । यौ । गच्छ॑थ: । नृ॒ऽचक्ष॑सौ । ब॒भ्रुणा॑ । सु॒तम् । तौ । न॒: । मु॒ञ्च॒त॒म् । अंह॑स: ॥२९.२॥
स्वर रहित मन्त्र
सचेतसौ द्रुह्वणो यौ नुदेथे प्र सत्यावानमवथो भरेषु। यौ गच्छथो नृचक्षसौ बभ्रुणा सुतं तौ नो मुञ्चतमंहसः ॥
स्वर रहित पद पाठसऽचेतसौ । द्रुह्वण: । यौ । नुदेथे इति । प्र । सत्यऽवानम् । अवथ: । भरेषु । यौ । गच्छथ: । नृऽचक्षसौ । बभ्रुणा । सुतम् । तौ । न: । मुञ्चतम् । अंहस: ॥२९.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 29; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(यौ) जो दो तुम (सचेतसौ) सचेत अर्थात् सावधान रहनेवाले [राष्ट्रकार्यों में], अथवा एक चित्तवाले अर्थात् परस्पर मिलकर, (द्रुह्वण:) राष्ट्रदोही को (नुदेथे) राष्ट्र से धकेल देते हो, निकाल देते हो, और (भरेषु) युद्धों में, या भरण-पोषण में, अथवा परस्पर के विवादों में (सत्यावानम्) सत्याचारी की (प्र अवथ:) प्रकर्षरूप में रक्षा करते हो; तथा (नृचक्षसौ) राष्ट्र के प्रजाजनों पर सदा दृष्टि रखते हो, और (बभ्रुणा) राष्ट्र का भरण पोषण करनेवाले के द्वारा (सुतम्) अभिषुत सोमयज्ञ में, अथवा नवोत्पादित उद्योग में (गच्छथः) जाते हो, शामिल होते हो, (तौ) वे तुम दोनों (न:) हम सबको (अंहसः) पापकर्म से (मुञ्चतम्) मुक्त करो, या छुड़ाओं।
टिप्पणी -
[अंहसः मुञ्चतम्= पाप करने से मुक्त करो।]